काय निर्णय सिंगार-रस ौ ताकी पूर्नता बरनन 'दोहा' जथा- उचित प्रोति रचना बचन यो 'सिंगार-रस' जाँन । सुनत प्रीत-मैं चित द्रबै, तब पूरन परिमॉन' ॥ वि०-"संस्कृत-व्याकरणानुसार 'शृगार' का अर्थ-काम-वृद्धि की प्राप्ति, अर्थात् कामी-जनों के हृदयों में प्रोति वा रति (स्थायो ) भाव रस-अवस्था को प्राप्त हो कान की वृद्धि करना है, उसे 'गार' कहा है और 'रस' का शाब्दिक अर्थ है-'श्रानंद। अग्नि पुराण में 'रस' काव्य का जीवन और विश्वनाथ चक्रवर्ती ने इसे काव्य की 'श्रात्मा' कहा है और इस 'रस की निष्पत्ति के लिये 'श्रीभरत मुनि' का यह कथन सर्वमान्य है, यथा- "विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगादस निष्पत्ति ।" इस 'रस-निष्पत्ति' को लेकर कितने ही विचार-वाद बने और बिगड़े, जिनमें-"भट्टलोल्लट का उत्पत्ति-वाद, शंकुक का अनुमिति-वाद, नायक भट्ट का मुक्ति-वाद और अभिनवगुप्त का अभिव्यंजना-वाद प्रमुख है । अतएव ध्वनिकार 'श्रानंदवर्धनाचार्य के कथनानुसार- "दष्टपूर्वाऽपि हयाः काव्ये रस परिग्रहात् । सर्वे नवा इवा भांति मधुमास इव द्रुमाः ॥" अर्थात् जिम प्रकार मधु-मास में वृक्ष अधिक चित्ताकर्षक और नवीन दीखने में आते हैं, उसी प्रकार काव्य में 'रस' का श्राश्रय-ग्रहण कर लेने से पूर्व दृष्ट अर्थ भो नवीन और सौम्य रूप धारण कर लेते हैं, यही सत्य है - निर्विवाद सत्य है।" अथ हास्य-रस बरनन 'दोहा' जथा- हँसी-भरचौ चित हँसि उठे, जा' रचना सुनि 'दास'। कवि-पंडित वाकों' कहें ये पूरन 'रस-हास' ।। वि०-"कौतुकार्थ अनुपयुक्त वचन अथवा विकृत-रूप-रचना से श्राहाद- युक्त मनोविकार को 'हास' एवं हास्य-रस कहते हैं। कविवर 'रसलीन ने 'हास्य' का लक्षण सुंदर दिया है, यथा-- पा०-१. (सं०)हवे) करि माँन । २. (प्र०) (३०) जी. । ३. (प्र०-२) तालो...।
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