७० काव्य-निर्णय "परिपोषक जो हँसी कौ, सोई हास-रस' जॉन । बिकृत-बचन-म-संग ते, नित उपजत है भाँन।" -० प्र०, पृ० १२६, कोई 'उर्दू-शायर' कहता है- "सलीके का मजाक अच्छा करीने की हँसी अच्छी। भजी, जो दिल का भा जाए, वही बस दिल्लगी भच्छो॥' पर यह 'हास' संस्कृत से लेकर ब्रजभापा और हिंदी तक में नहीं है- नहीं है, उसे उदाहरण-रचयितात्रों ने फूहड़-वारू बना दिया है । अस्तु, शास्त्रकारों ने हास्य के प्रथम-'उत्तम', 'मध्यम' और 'अधम' भेद करते हुए उत्तम के-स्मित' और 'हसित', मध्यम के–'विहँसित' और 'उपहसित' तथा अधम के-'अपहसित' और 'अतिहसित' भेद किये हैं। इन भेदाभेदों के ब्रजभाषा-साहित्य में उदाहरण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, जो आजतक चुने नहीं गये। रसलीनजी ने हास्य ( हास ) के मंद, मध्यम और अति नाम के तीन ही भेद माने हैं और इनका लक्षण इस प्रकार लिखा है, यथा- "दसँन खुलत नहिं 'मंद' में, धुनि 'मध्यम' में हो। बहु हँसिबौ 'अति' हास है, हास तीन-विधि सोइ ॥" -२० प्र०, पृ० १२६ इनके उदाहरण भी सुंदर दिये हैं, पर उन्हें न देकर 'स्मित' हास्य का एक उत्तम उदाहरण यहाँ दे रहे हैं। देखिये कितना दर्शनीय हैं, जैसे - "बाल के भानन चंद लग्यौ नख, माली बिलोकि प्रभा अति हाँसी। आज न द्वैज है चंदमुखी, मतिमंद कहा कहें ए पुर-बासी ॥ बापुरी जोतिसी जाँने कहा, भरी, हों कहों जो पदि भाई हों कासी। चंद दुहूँ-के-दुहूँ इक और हैं, भाज है द्वैज औ नमासी॥" यहाँ हास शब्द की स्थिति 'रस-दोष उत्पन्न कर रही है, फिर भी कवि- कथन सुंदर है। "हज़रते जाहिद हमारी बेर की पादत नहीं। गुदगुदी होती है दिल में पारसा को देखकर ।" -कोई शायर
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