काव्य-निर्णय अथ करुन-रस बरनन 'दोहा' जथा- सोक' चित्त जाके सुनत, करुनॉमइ है जाइ। । ता कबिताई कों' कहें, 'करुना रस' कबिराइ। वि०-"प्रिय-पदार्थ वा इष्ट के वियोग से उत्पन्न रति-रहित मनोविकार को 'शोक' और उससे उत्पन्न अनुभूति को 'करुण रस' कहते हैं।" अथ वीर रस बरनन 'दोहा' जथा- जो उच्छाहिल' चित्त में, देत बढाइ उच्छाह । सो पूरन रस 'बीर' है, रचे सुकबि करि चाह ।। वि०-"जैसा कि दासजी ने कहा है कि 'वीर रस' का स्थायो भाव उच्छाह (उत्साह) है । बेरी, भिक्षुक और दीन को देखकर उन्हें क्रमशः परास्त करना तथा उनके कष्ट निवारण करने की उत्तरोत्तर अभिलाषा में आनंदानुभूति को उत्साह कहा गया है । अतएव पराक्रम, शरीर-बल, अात्म-रक्षा, साहस, हिम्मत, बहादुरी, कार्य करने की शक्ति, निर्भयता और युद्धादि करने की तत्परता-अादि से 'वीर रस' का ग्रहण किया जाता है । अतएव वीर रस के संचारी-भाव-"गर्व, असूया, धृति,, उत्सुकता, आवेश, श्रम, हर्ष और मरणादि,” स्थायी भाव- 'उत्साह', अालंबन-"शत्रु, दीन, दुखीजन, सत्संग, धर्म-निष्ठा," उद्दीपन-- "मारू बाजों, का बजना, कंदन, शंखनादादि", अनुभाव-"मारकाट, अंगों का स्फुरण, भृकुटि चढ़ाना, रोष करना, सैन्य-संचालन, शस्त्रादि के प्रयोग", गुण--"श्रोज, प्रसाद, वृत्ति-पौरुषा, कोमला", रीति-'गौड़ी, पांचाली और लाटी', सहचर रस "हास्य, अद्भत, करुण बीभत्स और रौद्र" और विरोधी शृंगार, शांत और वात्सल्य रस कहे जाते हैं। ___ संस्कृत के प्राचार्यों ने वीर तीन प्रकार का युद्धवीर, सत्यवीर और दान वीर माना है। ब्रजभाषा-श्राचार्य 'रसलीन' ने-सत्य, दया, रण और दान रूप चार प्रकार के वीर माने हैं तथा उनके सुंदर उदाहरण भी दिये हैं । पद्माकरजी ने 'वीर' का उदाहरण बड़ा सुंदर दिया है, यथा- .. "धनुष चढ़ावत. भे तब-हिं, लखि रिपु-कृत उत्पात ।. हुलसि गात रघुनाथ को, बखतर में न सँमात ॥ पा०-१.(सं० प्र०) सोको चित जाके बने। (३०) (प्र० मु०.)....."सुने । २. (प्र०-२) सो......| ३. (३०) उत्साहिलं...। (प्र०-२) जब उच्छाहल...i .
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