काव्य-निर्णय सिंगार-रस बरनन 'दोहा' जथा- • प्रीति नायिका-नायिक-हि, सो सिंगार-रस ठाउ । बालक, मुनि, महिपाल अरु देब-बिषै रति-भाउ ।' सिंगाररस : संजोग-विजोग बरनन 'दोहा' जथा- एक होत संजोग अरु, पाँच बिजोग थाप'। सो अभिलाष, प्रबास बरु बिरह, असूया, साप । वि०--"सौंदर्य अवलोकन से जो लोकोत्तर आनंद मिले, उसे 'शृगार- रस' कहा गया है। इस शृगार-रम के दो - 'संयोग' और 'वियोग' अथवा 'विप्रलंभ' भेद माने जाते हैं। दर्शन, स्पर्श, संभाषणादि से नायिका-नायक जिस इंद्रिय सुख को पाते हैं, वह 'संयोग-भृगार है । अतएव इसके संचारी भाव- "श्रम, चिंता, मोह, असूया, क्रीड़ा, मद, धृति, गर्व" स्थायी भाव-'रति', श्रालंबन-"प्रेमास्पद-श्रादि", उद्दीपन-संगीत, वसंतादि ऋतुएँ, मलयानिल, कोकिल श्रादि पक्षियों का कलरव, कुमुद, सखो, चंद, चांदनी और उपवन" श्रादि हैं, जिनका वर्णन आगे हो चुका है। अनुभाव-'नायक-नायिका', सहचर-रस-'हास्य' और 'अद्भत', विरोधो-"करुण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, शांत और वात्सल्य रस", गुण--"माधुर्य और 'प्रसाद', वृत्ति-"उपना- गरिका, कोमला,"रीति-"वैदर्भी, पांचाली,"कही गयी है। विप्रलंभ-शृंगार-नायक-नायिका में उत्कट प्रणय होते हुए भी समागम का न होना कहा गया है । इसके संचारी-"उग्रता, मरण, बालस्य, श्रम, चिंता, विचार, स्वप्न, म्याधि, उन्माद, चपलता, मोह, दैन्य, अामर्ष, शंका, अपस्मार," स्थायी~'रति', बालंबन-"नायिका-नायक" उद्दीपन-चंद, चाँदनी, पक्षियों का कलरव, मेघ, उपवन, कमल, कपूर, उवटन, शीतल-पवन तथा ऋतुएँ श्रादि", अनुभाव-नायक-नायिका', गुण-"माधुर्य तथा प्रसाद", वृत्ति-"उपनागरिका और कोमला", एवं-रीति वैदर्भी तथा पांचाली कही गयी है। रति-शास्त्र के श्राचार्यों ने इसके-'पूर्वानुराग,' 'मान', 'प्रवास' नाम से तीन भेद किये हैं। कोई-कोई करुण रूप से चौथा भेद भी मानते हैं । पूर्वानुराग को भी प्रत्यक्ष, चित्र, श्रवण और स्वप्न-दर्शनादि रूप चार प्रकार का कहा गया है । चित्र-दर्शन का एक उदाहरण, यथा- पा०-१. इस से आगे वेंकटेश्वर बंबई की मुद्रित प्रति में-"सो सिंगार-रस द्वै प्रकार का १ सयोग २ बियोग । संयोग १ प्रकार का। वियोग ५ प्रकार का लिखा अधिक मिलता है। २. (३०) यापु । ३.(३०) सापु ।
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