पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय वि०-"जिस रस के श्रास्वादन से घृणा के भाव पैदा हों, वहां 'बीभत्स' रस कहा जाता है, क्योंकि इस रस की उत्पत्ति-रुधिर, मांस-मज्जा-अादि घृणित वस्तुत्रों के देखने से ग्लानि के कारण होती है, जैसा कि दासजी के छंद में वर्णन है । इसके संचारी-“मोह, अपस्मार, जड़ता, आवेग, व्याधि, मरण, मति, ग्लानि, निर्वेदादि"...., स्थायी-जुगप्सा (ग्लानि", श्रालंबन- "घृणास्पद- पदार्थ, घिनोने दृश्य", उद्दीपन-"शव, पुरीष, मांस, रक्तादि को सड़ायद, उसमें कीड़े आदि का पड़ना और दुर्गंधादि हैं।" इसी प्रकार अनुभाव - "थूकना, मूह-फेरना, आँखें-मूदना, रोमांचित होना", गुण-'पोज', रीति “गौड़ी तथा "लाटी", वृत्ति-"पौरुया व कोमला", सहचर-"हास्य, अद्भुत, बोर, करुण, भयानक और शांत रस", विरोधी--शृंगार तथा वात्सल्य- रस कहे गये हैं। देवता- 'नहाकाल' एवं वर्ण-'नील' कहा जाता है। बिभत्स-रम का उदाहरण किसो कल्पनातीत कवि का नीचे लिखा भी अच्छा है, यथा- "माँत के तार जु मंगल कंगन, हाथ में बाँधि पिसाच की बाला । कॉनन हाड़न के झुमका, पैहरें, हिय में हियरॉन की माला ॥ लोहू की कीचर सों उबटे सब अंग बनाऐं सरूप कराला । पीतम के सँग हाड़ के गूदे की, मद्य पिऐ खुपरीन के प्याला॥" अद्भुत-रस बरनन 'कबित्त' जथा--- सिब-सिब कैसौ हुतो' छोटौ सौ छबीलो गात, कैसौ चटकोलौ मुख चंद-सौ सुहावनों । 'दास' कोंन मॉनि हैं प्रमाँन ए ख्याल ही में, सिगरौ जहाँन द्वै कपार बीच ल्यावनों ।। बार-बार पाबै यही जिय' में विचार यहे, बिधि है, कि हर है, कि परमेस पावनों । कहिऐ कहा जू कछु कहत न बनि आबै अति-ही अचंभे भरयो भायौ ये बावनों॥ वि०-"निसके प्रास्वादव से प्राश्चर्य प्रकट हो, उसे साहित्यकारों ने 'अद्भुत-ग्स' कहा है, क्योंकि इसमें अाश्चर्य-जन्य वस्तुएँ देखने पर (इसकी) पा०-१, (प्र०) सोहै...। २, (प्र०) (३०) दै कफल, वा दैक फाल...| ३, (प्र०) मन.... ४, (२०] अचमा...।