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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१२६

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काव्य-निर्णय ब्याल बर' पूरब चेंडूर द्वार ठाड़े तऊ, भभरि' भगाइ भयौ भीतर-ही' जात है'। 'दास" ऐसी डर-डरी मति है तहाँ हूँ ताकी, ___ भरभरी लागी मँन, थरथरी गात है। खरक' हुँ के खरकत, धकधकी धरकत, भोंन कोंन में सिकुरत सरकत जात है।* वि०-"किसी बलवान का अपराध करने अथवा भयंकर वस्तु देखने पर भयानक-रस' की उत्पत्ति कही गयी है। अतएव जिस रस के अास्वादन में इंद्रिय-क्षोभ वा भय उत्पन्न हो वहाँ भयानक रस होता है। इसके संचारो- "जुगुप्सा, रोमांच, अवहित्थ, विषाद, जड़ता, मति, स्मृति, निर्वेद"-श्रादि ., स्थायी- 'भय', बालंबन-"व्याघ्रादि हिंस्रक जंतु, शून्य स्थान, वन, शत्र,”, उद्दीपन-अंधकार, निस्सहाय होना, शत्र की भयंकर चेष्टा", अनुभाव-"रोमांच प्रकंप, वैवर्य, गदगद होना, आँख मूदना, स्वेद और अाँसुत्रों का बहना', गुण-"श्रोज", रीति - "गौड़ी", वृत्ति पौरुषा', सहचर-"अद्भुत, करुण, वीभत्स-रस", विरोधी-"श्रृंगार, हास्य, वीर, रौद्र, शांत और वात्सल्य रस", देवता – “यम' तथा वर्ण-कृष्ण (काला) कहा जाता है।" विभत्स-रस बरनन 'कवित्त' जथा-- बरखा के सरे - मरे मृतक-हू खात, न घिनात खरे फैमि-भरे मासन के कौर कों। जीबत बराह कौ उदर-फारि चूसत हैं, भाबै दुरगंध वौ' सुगंध जैसे और कों। देखत - सुनत सुधि करत हू आबै घिन, साजे सब अंगँन घिनौमने, हिंडोर कों। मति के कठोर मॉन धरम कों तारे, करें करॅम अघोर डरें परम अघोर कों। पा०-१. (प्र०) (सं०:प्र०) ३०) व्याल बल-पूर औ...। २. [प्र०] भगत चलो भीतर ..! ३. [सं० प्र०] भयो ... ४. [ का० प्र०] पूर और चून नर छार खेत ठाड़े तऊ, भभरि भगाइ भए...| ५.[का० प्र०] 'दास' मति हेतु हाड, ताकी भरभरो लागु ... ६. [प्र०] खर-हू के... [व] खार-हू के...। ७ [सं० प्र०] [३०] भोनकोंन सिकुरत...। . ०] के...|६. [प्र०] सो...। १०. [३०] घिनॉमने-ही दौर.... [प्र०] घिनॉमने-ही ठौर... [प्र०--३] धिना- मनी-ही ठौर...1

  • , का० प्र० (भानु) पृ० ४१५,२ ।