१४२ काव्य-निर्णय सुर्यलच्छित सब्द ते धुनि जथा- पात'-फूल-दातँन को दीबे को अरथ, धरम, कॉम, मोच्छ, चारों फल मोल ठहरावती । देखौ 'दास' देब-दुरलभ-गति दैकें, महा पापिन के पापँन की लूट ऐसी पावती ।। ल्याबत कहूँ ते तँन-जात रूप कोउ ताको, जातरूप-सलहि की साहिबी सजावती' । संगति में 'बॉनी' के कितेक जुग बीते देषि, गंगा-पै न सौदा की सरह तोहि श्रावती ।।* अस्य तिलक इहाँ यांनी सब्द में चमत्कार है, सरस्वती नाम लहेते नाहीं। वि०-"अर्थात् दामजी कहते हैं कि यहाँ 'वाणी' शब्द जो वणिक् (बनिये) का अर्थ दे रहा है, वही सुंदर है, सरस्वती-संज्ञा वाची नहीं । अतएव यहाँ "स्वयंलक्षित' एक शब्द-गत ध्वनि है ।' सुयंलच्छित वाक ते धुनि जथा- अँनि-सुनि मोरन को सोर चहुँ ओरँन ते, धुनि-धुनि सीस पछितानी पाइ दुख कों। लुं नि-लुनि भाल-खेत बई बिधि बालँन को, पुनि-पुनि पानि मीडि मारती बपुख कों ॥ चुंनि-चुंनि साजती सुमँन-सेज आली तऊ, भुनि- नि जाती अबलोकि वाहो रुख को । गुँनि-गुंनि बालँम को आइबौ जु अजहुँ दुरि, हुँनि हुँनि देति' विरहानल में सुख को ।। पा०-१. (प्र०) (प्र० मु०) पात-फूल दातन को प्ररथ, धरम, काम, मोच्छ, दीवे कहें चारि फल...। (व्यं० म०) पात फूल दातैन को अरथ, धरम, काम, मोच्छ, चार फल दीवे को मोल...। २. (सं० प्र०) को...। ३. (प्र०) (प्र० मु०) ताहि ..। (व्यं० म०) ल्यावतो कहूं ते कोऊ जातरूप फल ताहि जातरूप सैल-हिं...) ४. (सं० प्र०) करावती । ५. (सं० प्र०) (३०) तरह.... ६. (३०) की...। ७. (सं० प्र०) धुनि-धुनि सीस मीडि मारती...। म. (३०) अवलोके...|६. (३०) देती....
- + व्यं० मं० (ला० भ०) पृ० ५०१ ५५ ।