पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१७६

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काव्य-निर्णय १४१ वि०-'काव्य-निर्णय की विविध हस्त-लिखित वा मुद्रित प्रतियों में यहाँ- 'अप्रबंध-ध्वनि, अप्रसंग-ध्वनि, प्रबंध-ध्वनि और प्रसंग-ध्वनि श्रादि विविध शीर्षक मिलते हैं। प्रबंध (गत ) ध्वनि-किसी एक वाक्य वा पद ( शब्द ) में नहीं हुआ करती, अपितु प्रबध-मथ के कई पद्यों अथवा किसी संपूर्ण कथा को अपने में समेटे हुए किसी एक रचना में हुश्रा करती है, जैसा कि 'दासजी' कृत इस दोहे के नीचे लिखे उदाहरण में भगवान् श्री कृष्णचंद्र की संपूर्ण-'चीर-लीला' का चल चित्र होते हुए भी 'हास्य रस' ध्वनित है। अताग्व कथा-प्रसंग के बल से जहाँ कोई रस-भावादिक व्यंजित हो वहाँ प्रसंग वा प्रबंध ध्वनि कही जाती है । यह ध्वनि अर्थ-बल से स्फुटित ( निकलती ) होती है और इसकी उतनी-ही जातियाँ ( प्रकार ) होती हैं जितनी कि अर्थशक्ति-द्भव अन्य ध्वनियों की।" ___ अस्य उदाहरन जथा- बाहर कढ़ि, कर-जोरिके, रबि को करौ प्रनाम । मॅन-इच्छित फल पाइके, तब जइबौ' निज धाँम ।। . अस्य तिलक जप न्हात सँमें गोपिन के बस्त्र श्रीकृष्ण ने हरे हे-लिए है, ना समें श्रीकृष्ण को बचन-कथन जाते प्रसंग चीर-हरन को और हास्य व्यंग भयो। अथ सुयंलच्छित ब्यंग बरनन जथा-- वाही कहें बने जु बिधि, वा-सँम दजी नाहिं। वाहि 'सुयंलच्छित' कहें, ब्यंग सँमझि मँन-माँहि ॥ पुनः भेद जथा- सब्द, बाक, पद, पद' हुँ को एक देस पद बर्न। होत सुयंलच्छित तहाँ, समझे सज्जन-कर्न । वि०-"दासजी ने यहाँ 'स्वयंलक्षितव्यंग्य' के शास्त्ररीत्यानुसार-"पद, वाक्य, प्रबंध, वर्ण और रचना-गत भेदों को शब्द, वाक्य, पद, एक देशी और वर्ण रूप से पाँच प्रकार का कहा है। ये एक शब्द, एक वाक्य, एक पद, एक देशी और एक वर्ण-गत भी होते हैं, जैसा कि 'दासजी' ने नीचे के कवित्त में वर्णन किया है। पा०-१. (प्र०) जईयो। (वे) जैौ । २. (सं० प्र०) धुनि" । ३. (सं० प्र०) पद विजकी, एक देस रस बर्न ।

  • व्यं० म० (ला० भ०) ५० ५५ ।