पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१८२

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१४७ काव्य-निर्णय पाठों भेद' प्रकासु, गुँनीभूत व्यंग-हि कहों । लगें सुहाए' जासु, बाच्यारथ' की निपुनता। प्रथम अगूढ व्यंग जथा- अर्थातरसंक्रमित अति५ जु तिरसकृत होइ । 'दास' अगदे ब्यंग में, भेद प्रघट हैं दोइ ॥ वि० -"दासजी ने पूर्वकथित अगूढ व्यंग्य ( जब व्यंग्य अति स्पष्ट शब्दों में वर्णित मिले ) के 'अर्थातरसंक्रमित' (जहाँ अर्थ प्रसंगानुसार वाच्यार्य छोड़ अन्यार्थ में संक्रमण-मन करे ) और 'अत्यंत तिरस्कृत वाच्य (जहाँ वाच्यार्थ की अति उपेक्षा की जाय ) रूप दो भेद किये हैं।" अथ उदाहरन 'अगूढ ब्यंग' जथा- गुनबंतन में जासु सुत, पहलें गिन्यों न जाइ। पुत्रबती चौ मात, तौ' बंध्या को ठहराइ ।। * अस्य तिलक जाको पुत्र निगुनी (निर्गुणी) है, वहै ( माता = स्त्री ) यंध्या है, ये प्रति स्पष्ट है, जाते अगूढ़ ब्यंग है। वि० - "अर्यात् विसका पुत्र गुणवानों में प्रथम न गिना जाय, वह स्त्री पुत्रवती है तो बंध्या किसे कहा जाय १ अर्थात् वहो स्त्री (माता ) वंध्या है जिसका पुत्र गुगवंतों में सबसे प्रथम न गिना जाय, यह- बंध्या को टहराइ' कहकर व्यंग्य को-अगूढ़ व्यंग्य को अधिक स्पष्ट शब्दों में वर्णन किया गया है । यही अर्थातरसंक्रमित वाच्यध्वनि है ।" अत्यंत तिरस्कृत वाच्यधुनि उदाहरन जथा-- बंधु भंध अबलोकि तुअ," जॉन परे सब ढंग । बीस-बिसें यै बसुमती, जैहै तेरे संग ॥ पा०-१.(सं० प्र०) भांति"। २. (प्र० ) ( प्र० मुं०) “गनों । (वे. ) हैं। (भा० जी० ) गुनि सु भृति । ३. ( भा० जी० ) (प्र०) (प्र० मु०) ( 0 ) सुहाई । ४. (भा० जी० )( 0) बाच्यारहिं को" । ५. (स० प्र०)(प्र.) (प्र० मु०) (३०) अत्यंत तिरस्कृत । ६. (सं० प्र०) (३०) (प्र० मु०) अगूढी । । ७. (भा० जी०) सोइ । (प्र०-३) प्रघट प. सोइ । २. (प्र०-३) भरपांतर समित अमूह व्यंग उदाहरन" । ६. (३)(प्र० मु०) पहिलो गनों । १०. (३०) तब" । ११ (प्र०) (वे.) थंधु । (भा०- जी०) बंधु" । १२. (प्र० मु०) तुव" । (३०) तु । (प्र०-३) तो।

  • का० प्र० (भानु ) पृ० १२२ । व्यं० म० (ला० भ० दो०) पृ०५६ | + का० प्र०

(भा०) पृ० १२२ । न्य० म० (ला० भ० दी०) १०६०१