१४८ काव्य-निर्णय अस्य तिलक हे बंधु, भलाई करि, यै पृथवी काहू के संग नाहिं गई, यै 'अत्यंत तिरस्कृत- वास्य धुनि रूप ब्यंग है। वि०-"दास्जी की यह उक्ति संस्कृत के महाकवि 'भोजराज' ( राजा भोज) द्वारा अपने चचा 'मुज' के प्रति कही गयी इस सरस सूक्ति के सहारे रची गयी प्रतीत होती है, यथा- "मांधाता स महीपतिः क्षितितलेऽलंकार भतो गतः, सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासी दशास्यांतकः । अन्ये चापि युधिष्ठिर प्रभृतयो यावंत एवाभवान, नके नापि समं गता दसुमतं, मुंज त्वया या स्यति ॥" - सुभापित अस्तु, श्री भोजराज के विराट् विचार रूप बारूद को दासजी ने अति सुंदर ढंग से अपनी दोहे की दुनाली ( बंदूक ) में भरा है, जो कहते नहीं, देखते बनता है।" अथ द्वितीय अपरांग ब्यंग जथा- रसबतादि बरनॅन किए, रस-बिजंक' जे आदि । ते सब मध्यम कान्य हैं, गुनीभूत कहि बादि । उपमाँदिक दृढ़ करन कों, सब्द-सक्ति जो होइ । तान्हू को 'अपरांग" गुंनि, मध्यम भाँषत कोई ॥ * वि-"जहाँ कोइ रस वा भाव किसी और रम का--- भाव का अंग हो जाय, अर्थात् जब व्यंग्यार्थ किसी दूसरे अर्थ का अंग हो जाय, तब वहाँ 'अपरांग" व्यंग्य कहा जाता है। अतएव यह अपरांग - "इसमें रस की अपरांगता, भाव में रस की अपरांगता, भाव में भाव की अपरांगता रसाभास की अपरांगता, भावाभास की अपरांगता, भाव-शांति की अपरांगता, भाव-समाहित की अपरांगता, भावोदय की अपरांगता, भाव-संधि की अपरांगता, भाव-शबलता की अपरांगता, वाच्यार्थ में शब्द-शक्ति-मूलक संलक्ष्यक्रम व्यंग्य को अपगंगता और अर्थ-शक्ति पा०-१. ( भा० जी ) रस बिजन'। २. ( भा० जी० ) अपरांगनी... | ३. (प्र.) (सं० प्र०)(३०)(प्र० मु०) लोइ. 1 (प्र०-३)सोइ ।
- , व्यं० म० (ला० भ० दी०) पृ० ६१.६२ :