पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१९१

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काव्य-निर्णय बचनों थिर'रचनों जहाँ, व्यंग न नेक लखाइ । सरल जॉन तिहि काव्य को 'भवर" कहें कबिराइ । अवर काव्य-भेद जथा-- अवर काव्य-हू में करें, सुकवि सुघरई मित्र । मॅन-रोचक कर देति हैं, बचॅन-अर्थ के चित्र ॥ बाच्य-चित्र' उदाहरन जथा- चंद चतुरॉनन चखन के, चकोरन को, चंचरीक, चंडी-पति चित्त - चोप कारिऐ। चहूँ चक्क चारों जुग चरचा चिराँनी चलै, 'दास' चारों फल देति पल-भुज चारिऐ ।। चोंप दीजै चारु चरनन चित्त चाँहिवे की, चेरिनी कौ चेरौ चीन्हीं चूकन' निबारिऐ । चक्रधर चकबे चिरैया'४ के चया चिंत," चूहरी कों चित्त ते चपल चूरि डारिऐ । वि०-"जहाँ केवल वाच्यार्थ की प्रधानता होती है वहाँ "अवर' (अश्रेष्ठ) काव्य कहा जायगा, जिसके 'वाच्य-चित्र' और अर्थ-चित्र दो भेद होते हैं। इसे शब्द चित्र भी कहते हैं । दासजी ने यहां चकार की श्रावृत्ति से अनुप्रास रूप सुंदरता के साथ शब्दालंकार प्रदर्शित किया है।" अर्थ-चित्र उदाहरन जथा- नीर-बहाइ के नेन दोऊ, मिलनाई" की खेह करें सँनि गारौ । बातें कठोर लुगाई करें, अपनी-अपनी दिसि डेल सौ डारौ।। पा०-१. (सं० प्र०) (३०) (प्र. मु०) बचनारथ...। २ (३०) और...। ३. (मा०. जी०) (३०) और . । ४. (भा० जी०) (०) (प्र० मु०) कबि सुधराई...। (प्र०-३) सुधाई कवि मित्र । ५. (३०) (प्र० मु०) कों...। ६. (सं० प्र०) अथ अबर-काव्य चित्र कवित्त...। ७. (स० प्र०) (३०) (प्र० मु०) के...। २. (सं० प्र०) (३०) के...। ६. (भा० जी०) (वे०) चक्र...! १०. (स० प्र०) (प्र० मु०).चारयों...। ११. (३०) (सं० प्र०) (प्र० मु०) चारयो...। १२. (३०) (प्र० मु०) चीन्हि...। १३. (३०) चूकॅन... (प्र०) (स० प्र०) (प्र० मु०) चुक की...। १४. (मा० जी०) रचैया...। (प्र० मु०) चिरी के...। १५. (भा० जी०) (३०) (प्र० मु०) चिता...। १६ (भा० जी०) मिल नाई। (सं० प्र०) (३०) (प्र० म०) मलिनाई...। १७ (भा० जी०) रेत...। (३०) डेल....