पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२०४

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काव्य-निर्णय १६९ भेद कहे और माने हैं। धर्मोपमेय और उपमेयोपमान लुप्ताऐं नहीं मानी है, क्योंकि इन दोनों में क्रमशः केवल उपमान और वाचक शब्द के तथा केवल समान धर्म और वाचक-शब्दों के कथन मात्र में कोई चमत्कार नहीं होता। इसी प्रकार तीसरी लुमोपमा का केवल एक भेद धर्म-उपमान-वाचक लुप्ता ही माना है । क्योंकि वाचक-धर्म-उपमेयलुमा रूपकातिशयोक्ति का विषय है, जिससे वह एक स्वतंत्र अलंकार है। धर्म-उपमान-उपमेयलुप्ता में केवल वाचक का तथा वाचक-उपमेय-उपमानलुप्ता में केवल समान धर्म का कथन होने से वहाँ उपमा नहीं मानी है । इनके अतरिक्त संस्कृत-प्राचार्यों ने - विंबप्रतिबिंबोपमा, वस्तु- प्रति-वस्तु निर्दिष्टोपमा, श्लेषोपमा, शब्द श्लेपोपमा, वैधयॊपमा, नियमोपमा, अभूतोपमा वा कल्पितोपमा, समुच्चयोपमा, रसनोपमा, लयोपमा के बाद उपमा के–'निरवयवा', 'सावयवा' और 'परंपरित' नाम से तीन भेदों का उल्लेख करते हुए प्रथम निरवयवा के शुद्धा और मालोपमा दो भेद, फिर मालोपमा के तीन भेद भिन्न, अभिन्न और लुप्त-धर्मादि भेद कर द्वितीय सावयव के दो भेद 'समस्त- वस्तु विषया' और 'एकदेश विवर्तिनी करते हुए तीसरी 'परंपरिता' के प्रथम दो भेद' श्लिष्टा' और 'अश्लिष्टा' जिसे कि 'भिन्न शन्दा' भी कहा गया है, मान श्लिष्टा के 'शुद्धा' और 'माला', एवं 'अश्लिष्टा' के भी शुद्धा और माला नाम के दो-दो भेद माने हैं--इत्यादि...." अथ अनन्वइ अरु उपमेयोपमाँ लच्छन जथा- जाको समता जाहि' कों, कहत बनन्' भेब'। उपमाँ दोऊ दुहुँन की, सो उपमा-उपमेब'॥ वि०--"एक ही वस्तु को उपमान-उपमेय-भाव से कहने पर 'अनन्वय' और उपमेय तथा उपमान को परस्पर में एक-दूसरे के उपमान-उपमेयरूप कहे जाने पर 'उपमेयोपमान' अलंकार कहे जाते हैं। अनन्वय का शब्दार्थ है संबंध का न होना। इसलिये यहां उपमान का संबंध नहीं होता, उपमेय-ही उपमान होता है। एवं 'उपमेयोपमा' में उपमेय को उपमान की तथा उपमान को उपमेय की उपमा दी जाती है, अन्य को-तीसरी वस्तु की नहीं। काव्यादर्श के रचयिता ने उपमेयोपमालंकार को 'अन्योन्योपमा' नाम से उपमा का ही भेद माना है। संस्कृत-साहित्याचार्यों ने उपमेयोपमा' के दो भेद-'उक्त-धर्मा' और 'व्यंज-धर्मा' पा०-१. (सं०प्र०) (प्र०) (प्र० मु०) ताहि...। २. (प्र०-३) गेइ...। ३. (प्र०-३) उपमेइ...