पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२०५

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१७० काव्य-निर्णय . भी माने हैं । उक्त-धर्मा के भी दो भेद--'समान धर्मोक्ति' (जिसमें समान धर्म का कथन हो) और वस्तु-प्रति-वस्तु निर्दिष्ट ( जब कि एक ही धर्म दो वाक्यों में वर्णन किया जाय) और माने हैं। व्यंज-धर्मा में समान धर्म का शब्दों के द्वारा कथन न होकर व्यंग्य से प्रतीत होता है। उपमेयोपमा में जिनकी परस्पर उपमा दी जाती है उनके सिवा अन्य उपमान के निरादर किये जाने का उद्देश्य निहित रहता है । अतएव जहाँ अन्य ( तीसरे ) उपमान के तिरस्कार की प्रतीति न हो वहाँ यह अलंकार नहीं माना जाता । संस्कृत में इसे 'परस्परोपमा' भी कहा है और इसकी माला का भी कथन मिलता है। "अनन्वय को भी अलंकार-श्राचार्यों ने शाब्द, श्रार्थ, पूर्ण और लुप्त रूप से वर्णन किया है-इसके उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं।" प्रथम अनन्वै उदाहरन जथा- मिली न और प्रभा-रती, करी भारती और। सुंदर नंदकिसोर सौ,२ सुंदर नंदकिसोर ॥' उपमेयोपमाँ उदाहरन जथा- तरल नेन तुब कचॅन-से, स्यांम तौमरस-तार । स्याँम तौमरस-तार से, तेरे कच सुकमार ।। प्रतीप-लच्छन जथा- सो 'प्रतीप' उपमेइ कों. जब कोजै उपमान । कैकाह बिधि बन्यं को, करौ अनादर ठान ।। वि०-"जब उपमेय को उपमान बनाया जाय, जब प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के स्थान पर उलटकर वर्णन किया जाय, अथवा वयं-विषय का जान-बूझ कर निरादर किया जाय तब 'प्रतीप' अलंकार माना और कहा जाता है। प्रतीप पा०-१. (प्र०) (३०)(प्र० मु०) दौर...। २ (वे ०) से... ३. इसके नीचे वे कटेश्वर की प्रति में "अस्य-तिलक' शीर्षक में लिखा है कि "जहां जा बस्तु को बरनन कर, तहां का बस्तु को वाही के समान बाही को बरनन करै तहां उपमा-उपमेह अलंकार होति है, जैसे-राम के समान राम ही हैं, सिब के समान सिब ही हैं-इत्यर्थ..." ४. (सं० प्र०) ते...। ५. यहां वेंकटेश्वर की प्रति में लिखा है-"उपमान-उपमेइ अलकार वाही को कहति है, जहाँ वो वस्तु वा बस्तु सों सोभा पावै, जैसे-रे नि मिले ते चंद्रमा सोभा पावतु है, जैसे चंद्रमा ते चंद्रमा सीमा को प्राप्त होत है। ६. (सं० प्र०) कीजै औ अमान । (३०) कीजै जब अपमान । ७.(३०) कर...।

  • दे० अलंकार-सर्वस्व (संस्कृत) विमर्शनी व्याख्या उपमेयोपमा-प्रकरण ।