पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२१०

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काव्य-निर्णय १७५ पुनः जथा- प्रभा-करन, तँम-गुन-हरन, धन सहस कर राज । तब प्रताप-ही जगत में, कहा भाँनु को काज ॥ अस्य तिलक- इहाँ दोऊ दोहाँन में उपमेह के सामने उपमान व्यर्थ कयौ है, ताते पांचयो प्रतीप है। "इति प्रार्थी उपमाँ..." अथ स्रोती उपमाँ लच्छन जथा- धरम सहज असलेष लखि, सुकवि सरुचि सरि दें। 'स्रोतो उपमाँ ताहि कों, सुनत५ सुमति चित लें। वि०--"जैसा पूर्व में कहा जा चुका है कि 'पूर्णोपमा' के दो भेद-श्रौती और प्रार्थो होते ।ौती का अर्थ है-सुनते-ही बोध कराने वाली। अतएव -इव, यथा, वा, सी, से, सो, लों और जिमि-अादि सादृश्य संबंध-वाचक शब्दों के प्रयोग में यह--ौती उपमा कही गयी है, क्योंकि ये इव-श्रादि शन्द समान- धर्म के संबंध को बतलाने वाले प्रस्तुत वाचक है। इन शब्दों में से कोई भी एक जि" शब्द के अंत में श्रा जाते उसे उपमान बनाकर अपनी अमिषा-शक्ति- द्वारा सादृश्य-संबंध का बोध करा देते हैं । यद्यपि ये उपमान से ही संबंध रहने के कारण उपमान के ही विशेषण है-उपमान में रहने वाले साधारण-धर्म के बोधक है, फिर भी शब्द-शक्ति की सामर्थ्य के कारण ये श्रवण मात्र से (षष्ठी- विमक्ति की भांति ) उपमान-उपमेय का साधर्म्य-संबंध बोध करा देते हैं। एक बात और, जिस प्रकार "इव-श्रादि" शब्द श्रौती के उद्बोधक है, उनी प्रकार “श्रार्थी उपमा' के भी-तुल्य, तूल, सम, समान, सरिस, सदृश आदि उपमा-बाचक शब्द द्योतक हैं, क्योंकि ये भी समान धर्म वाले उपमान-उपमेय दोनों के वाचक हैं । ये कहीं उपमेय के, कहीं उपमान के और कहीं उपमानोपमेय दोनों के साथ संबंध रखते हैं। अतएव इनके प्रयोग में अर्थ पर विचार करने से ही समान-धर्म का बोध होता है, क्योंकि ये इव-श्रादि की भाँति साधर्म्य के पा०-१. (प्र० मु०) करि, जहाँ सुकवि सरि...। (स० प्र०) धरैम सैहैज के स्लेष लखि...। २. (सं० प्र०) (०) कहि...। ३. (प्र० मु०) देत । ४. (सं० प्र०) (३०) स्रोती उपमा पूरने. सुनें सुमति... ५. (प्र० मु०) कहत सदा सुभचेत ।