सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय कोकिल बसंत सों, ज्यों डॉमिनि सुकंत सों, ज्यों संत भगवंत सों, व्यों नेम' निवहत हैं। भिच्छुक भुबाल सों, ज्यों मीन जल-माल सों, ज्यों नेन नँदलाल सों ज्यों चायन' चहत हैं। ___पुनः दूसरौ उदाहरन जथा- मित्र ज्यों नेह-निबाह करै, कुल कॉमिनि ज्यों परलोक सुधारनि । संपति-दाँनी सु साहिब ज्यों, गुरु-लोगन ज्यों गुरु-ग्याँन-पसारनि । 'दास'जू भ्रातँन-सी बल दाइँन, मात सी ज्यों बहु दुःख निबारनि । या जग में बुधबंतन कों, बर विद्या बड़ी बित' ज्यों हित-कारनि ।।* वि०-"कन्हैयालाल पोद्दार ने अपनी 'अलंकार-मंजरी में इस छंद के प्रति लिखा है कि "यहां विद्या को मित्र, कुल-कामिनो श्रादि अनेक उपमाएँ दी हैं और उनके नेह-निवाहना, परलोक-सुधारना आदि पृथक्-पृथक् धर्म कहे गये हैं, इसलिये यहाँ "भिन्नधर्मा मालोपमा' है ।" ऊपर के कवित्त में भी यही बात है, वहां भी श्री नंदलाल के प्रेम-प्रति अनेक उपमाए दी है, अतः वहां भी 'भिन्नधर्मा मालोपमा' है।" तीसरौ उदाहरन स्लेस ते जथा- चंद को कला-सी, सीत-करन हिए कों •गुन, पानिप - कलित मुकताहल के हार • सी। बेनी बर बिलसै प्रयाग-भूमि ऐसी है, अमल छबि छजिरही जैसें कछुपार-सी॥ 'दास' नित देखिऐ सची-सी संग उरबसी, काँमद अनूप कलपद्रुम को डार-सी । पा०-१. (३०) नेम-ही गहन...। (प्र० मु०) नेमहिं गहत...! २. (३०) चापन बहुत.. । (भा० जी०)... दलाल सो त्यों चायन...। ३. (स० प्र०) (३०)...कुल नारिन ज्यों...। (प्र० मु०) कुल-नारि ज्यों...। ४. (सं० प्र०)(३०) (म० मु०) दांन...। ५. (प्र०) (प्र० मु०) सों...। ६. (३०) ज्यों...। ७. (सं० प्र०) (३०) मातनि ज्यों बहु... (प्र० मु०) मात-सी वो...। (भ० म०) मात-सी है नित...1 ६. (सं० प्र०) (३०) पित...1 १०.(स० प्र०) (३०) (१० मु०) की...। ११. (सं० प्र०) की.... १२. (३०) छाजि...। (प्र० मु०) कार...। १३. (३०) जैसी...। १४ (३०)...कल्पद्रुमन के...।

  • मलका० म० (क० पो०), पृ०७१।