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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२२७

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काव्य-निर्णय १६२ एक क्रिया को दूजी क्रिया ते एकता जथा-- तजि भासा तँन प्रॉन की, दीपै'-मिलत पतंग । दरसाबत सब नरैन कों, परम प्रेम को ढंग ॥ * पुनः जथा- पदमिनि-उरजन पै लसत, मुकत-माल की जोति । समझाबति यों सुथल गति, मुक्त नरैन की होति ।। वि०-"दासजी के ये दोनों उदाहरण सुदर है--समुचित हैं। कहने का ढंग और अदा देखने लायक है। प्रेम पर कुछ कहना उचित नहीं, क्योंकि पतंगे का प्रेम उच्च है और बहुतों ने वर्णन किया है। द्वितीय दोहे पर विहारी का दोहा याद आ गया है, जैसे--. "अजों तरोनॉ-ही रह्यो, स्व ति-सेवत इक अंग। नाक बास बेसर नह्यो, रहि मुक्त न के संग ॥" -सतसाई एक बात और, यह कि--प्रथम दोहा--"तजि अासा तैन-प्रॉन की." को भारतो-भूषण ( केडिया) में तृतीय निदर्शना जिसमें अपनी सत्-असत् (भली-बुरी) क्रिया से अन्य को सत्-असत् व्यवहार की शिक्षा दी बाय के उदाहरण में उद्धृत किया है और कहा है कि “यहाँ भी पतंगे का प्राण- श्राशा त्याग कर दीपक से मिलने की क्रिया-द्वारा शुद्ध प्रेम के सदर्थ की शिक्षा देना है और इस उदाहरण में यही बात है। ____ ऊपर उद्धृत विहारीलाल की उक्ति पर ये संस्कृत-सूक्तियां भी श्रेष्ठ है, जो नीचे दी गयी है, यथा- "स्नेहं परित्यज्य निपीयधूम कांताकचा मोक्षप्य प्रसमा । नितंबसगारपुनरेव बद्धा महो दुरता विषयेषु सक्ति॥" अथवा- "स्नेह संवर्धिताम्बालान्टं बध्नाति सुंदरी । करुणा हरिणाचीणां कुत कठिन घेतसाम् ।" अतएव संसार-सागर से पार होने के लिये जीवनमुक्त पुरुषों की संगति भी एक मुख्य उपाय है, यही बात इन दोहों और संस्कृत-सूक्तियों में सुदर श्लेष पा०-१. ( भा० जी०) (३०) (प्र० मु०) दीपहि। २. ( सं० प्र०) (३०) जुत.."। ३. ( मा० जी०) मुक्ति ।