पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२३५

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२०. काव्य-निर्णय वि०-"दासजी का यह सवैया छंद आगे कुछ पाठ-भेद के साथ तेईसवें (२३) उल्लास में अड़सठवीं (६८) संख्या के "अनविकृत" उदाहरण रूप शब्दार्थ-दूषणों के वर्णन में भी पाया है।" वेंकटेश्वर की प्रति में "अस्य तिलक' रूप यह और लिखा है कि "भले का अंग जो है सो स्वभाव ही से जान पड़ता है, जैसे अग्नि जो है सो कोई वस्तु को जार डारै तिस में श्राश्चर्य क्या है, इसका तो स्वभाव ही है और बड़ी गरू जो वस्तु है वह गिर पड़े इसमें क्या अयोग्य है ? इसका तो यही धर्म है गरू है, और रत्नाकर का जल खारा है तिसमें कमा असंभव है और पियूष जो अमृत है सो नो मीठा है तिसमें क्या आश्चर्य और विष जो है सो कडुश्रा है तिसमें क्या अाश्चर्य है तैसे मैं कहता हूँ भले पुरुष जो हैं तिनका ऐसा ही धर्म है, इसमें क्या अयोग्य है, नीच का धर्म नीच ही है।" "इति श्री सकलकलाधर-कलाधरवंसावतंस श्री मन्महाराज कुमार श्री हिंदूपति बिरचिते-काव्य-निरनए उपमादि- अलंकार' बरननं नाम मष्टमोल्लासः।"