काम्य-निर्णय १६१ वि०-"दासजी को इस "बेनी-सो-बेनी" पर कविवर "चिंतामणि" जी की चिरजीवी उक्ति भी देखिये, यथा- "बारन की रचना रची है प्रॉन-प्यारी एरी, मखी तेरी परब-जनम कड देनी है। पोठि पै सोहत यों सुवरन-भूमि पर दींनी धों सिंगार-रूप रस की थलेंनी है। 'चिंतामनि मानों अंग सहजसुबास-पास, कनक-लता पैलिपटॉनी अनि-सेंनी है। मानसो के फूलमजलित बाल गुन-गुथी, बेनी-सी लसति मृग-नो तेरी बेनी है। श्रस्तु- "बड़े गुस्ताख हैं मुककर तेरा मुँह चूम लेते हैं। बहुत-सा तूने जालिम गेसुओं को सर-चढ़ाया है।" पुनः उदाहरन जथा- छटि गऐं नारी भई, मोहन की गति सोइ । जूटि गएं नारी ज़ गति', और नरैन की होइ ।। वि०-इस दोहा का 'तिलक' रूप-"नारो नाम स्त्री के छटते मोहन जो कृष्णचंद्र हैं तिन की गति ऐसी होती है कि जैसे हाथ की नाड़ी है, इसके छूटते जैसे मनुष्य को गति होती है, वैसी ही उनकी होती है तात्पर्य विहल हो जाते हैं।" यह वेंकटेश्वर की प्रति में लिखा है । पुनः उदाहरन जथा- बाल-बिलोचॅन अध खुले पारस संजुत प्रात । निंदत अरुंन प्रभात कों बिकसत सारस-पात ।। दूसरौ लच्छन जथा- जहाँ बिब-प्रतिबिंब नहि, धरम-हिं ते सब ठाँन । तहँ प्रतिबस्तुपमाँ' कहें' दिष्टांत-हु" में जॉन ।। अस्य उदाहरन जथा कोन अचंभौ जो पाबक जारै, गरू गिरि है तो कहा अधिकाई। सिंध-तरंग सदैव खराई, नई नहिं सिंधुर-अंग-कराई । मीठो पियूष, करू विष 'दास जू', है ये रीति न निंद-बढ़ाई। भार चलावत पाए धुरीन, भलेन के अंग सुभाब भलाई ॥ पा०-१. (प्र०) नारी ष्टि गरे भई... । (३०) नारी टि गयें जु भो...। २. (प्र०) नारी छुटि गऐ जुगत... । (३०) नारिन टि गएँ जुगति...। ३. (सं०.प्र०) लाल... । ४. (सं० प्र०) (३०) प्रतिवस्तूपमा तहिं कहैं। ५. (भा० जी०) (३०) दिष्टांत हि... । (प्र०-३) दिस्टांतो ..। ६. (३०) कछु... | ७. (स० प्र०) (३०) विष रीति यै दास ज या मैं न निंद... | 4. (३०) चलाहि भाए... ।
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