पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२४८

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काव्य- निय २१३ अथ लुसोत्प्रच्छा जथा- 'लुपतोत्नेच्छा' तहँ' कहें, बाचक-बिन जो होई । जाकी विधि मिल जाति है, काब्यलिंग में सोइ ॥ वि०-"दासजी कहते हैं कि “जहाँ मनु, जनु-यादि पूर्व कथित उत्प्रेक्षा- वाचक शब्दों के बिना उत्प्रेक्षा की जाय वहाँ “लुप्तोत्प्रेक्षा' कही जाती है और इसकी विधि काव्यलिंग ( काव्यलिंग-जब जुक्ति सों, अर्थ-समर्थन होइ) से मिल जाती है । इस लुप्तोप्रेक्षा को-गम्पोत्नेक्षा, प्रतीयमाना-जलितोत्प्रेक्षा, गुप्तोत्प्रेक्षा और व्यंग्योत्प्रेक्षा भी कहते हैं।" अस्य उदाहरन जथा- बिन-हिं। सुमन-गन बाग में, भरे देखियतु भोर । 'दास' भाज* मन-भाँभती, सैल करी इहि ओर ।। वि०-"दासजी कृत लुप्तोत्प्रेक्षा के इस उदाहरण को कन्हैयालाल पोद्दार ने अपनी अलंकार-मंजरी (पृ०१४६) में उक्त अलंकार का उदाहरण नहीं माना है। श्रापका कहना है कि "दासजी ने इसके पूर्व लक्षण वाले दोहे में-'जाको बिधि भिल जाति है, काब्यलिंग में सोह" अर्थात गम्योत्प्रेक्षा काव्यलिंग में मिल जाती है, इस लिए गम्योत्प्रेक्षा का विषय दास जी नहीं समझे और उदाहरण भी असं- बद्ध दिया है। ऐसे उदाहरणों में गम्योत्प्रेक्षा नहीं होती, क्योंकि इसमें न तो स्वरूप की उत्प्रेक्षा है और न हेतु वा फल को । पुष्पों के बिना भौंरों की भीड़ देखकर बागमें नायिका के आने की संभावना-मात्र है। श्रतएव पूर्वाद्ध में पुष्पों के होने रूप कारण के अभाव में भौंरों के होने रूप कार्य का होना कहे जाने से "उक्त निमित्ता प्रथम विभावना" अथवा उत्तराध के वाक्य का पूर्वाद्ध में शापक कारण होने से "अनुमान" अलंकार हो सकता है, गम्योत्प्रेक्षा नहीं।" किंत पोद्दार जी शायद इस दोहे में प्रस्तुत 'अाज' शब्द को देखकर भी अनदेखा कर गये हैं । यह श्राज शब्द ही बाग में नायिका की उपस्थिति और भौंरों की भीड़ का डंका बजा रहा है, जिसे पोद्दार जी अग्नी वाक्पटुता से नहीं दबा सकते । पा०-१ (का०)(वे 0, तिहि...। २ (का०) (३०) (प्र०) कोइ । ३. (सं० प्र०) (प्र०) (का०) (३०) हैं...। ४. (सं० प्र०) देखिऐ । ५. (रा० पु० का०) मनो। ६. (वे.) किये...।

  • अ० म० (क० पो०) ५० १४६ ।