२१६ कान्य-निर्णय "समाँ ये कहती है", किस जो न हम पै शुरुम हुए। खुदा के घर में भी देखो जलाये जाते हैं।" . अथवा- "चिराग सुबह ये कहता है, आफजाब को देख । ये यज्म तुम को मुबारक हो, हम तो चलते हैं।" अथ अपन्हुति अलंकार बरनन यथा- और धरम जहँ थापिए, साँचौ धरम-दुराइ । और दीजै जुक्ति-बल, और हेतु ठहराइ ॥ मेंटि और कौ' गँन जहाँ, करें और कौ' थाप । भ्रम काहू को ह गयौ, ताकों मिटबत आप ॥ काहू बूझ्यौ3 मुकरि के, और कही बनाइ । मिस-करि औरों कथन छै बिधि होति "अपन्हुति" भाइ ।। अपन्हुति के पट भेद कथन जथा- 'सुद्ध', "हेतु', 'परजस्त', 'भ्रम', 'छेक': 'कैतबै देखि । बाचक एक 'न'कार है. सब में निसचे लेखि ॥ वि०-"प्रकृत ( उपमेय) का निषेधकर अन्य ( उपमान ) के आरोप (स्थापना) किये जाने पर-सत्य-धर्म को छिपाकर अन्य धर्म के स्थापन (अारोप) किये जाने पर, "अपन्हुति" अलंकार कहा जाता है । सादृश्य के कारण गुण- विशेष-द्वारा उपमेय का अपन्हव (छिराने ) करने पर, अर्थात् निषेध कर, और उसके स्थान पर उपमान को स्थापित किया जाय तव उक्त अलंकार माना जायगा। क्योंकि अपन्हुति का अर्थ है छिपाना -गोपन करना, अथवा निषेध । अतएव यहाँ उपमेय का निषेध कर उपमान की स्थापना की जाती है । लक्षण में उपमेयोपमान का कथन उपलक्षण मात्र है, उपमेयोपमान-भाव के बिना भी अप- ___पा०-१. (का०) (०) (प्र०) सो...। २. (सं० प्र०) (का०) (३०) में...I (प्र०) की । ३. (३०) पूखें। (सं० प्र०) पूँच्यो ...। ४. (स'० प्र०) (का०) तिहि...। (३०) करि। ५. (स० प्र०) (का०) (३०) कहै...। ६. (स० प्र०) (प्र० मु०) षट...। ७. (का०) (२०) धरैम...| R. (३०) कहत्वहि...)
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