२१८ काव्य-निर्णय छेक में कहा हुअा सत्य, असत्य उक्ति के कथन से छिपाया जाता है । कैतवाप- न्हुति वहाँ होती है-“जहाँ उपमेय का निषेध 'कैतव' (छल-कपट ), 'व्याज' और 'मिस'-श्रादि शब्दों के अर्थ-द्वारा किया जाय । वक्रोक्ति में दूसरे के द्वारा कही गयी बात का अन्य अर्थ लगा लिया जाता है और यहाँ अपनी ही कही हुई बात को स्वयं छिपाकर दूसरी बात बना दी जाती है । व्याजोक्ति में भी गुप्त बात किसी प्रकार प्रकट होने पर उसे छिपानेवाला छिपाता है, पर यहाँ वह (वक्ता) स्वयं कह कर उसका निषेध करते हुए युक्ति-द्वारा छिपाता है, इत्यादि...। अपन्हुति 'सादृश्य-मूलक' हैं वा 'श्रौपम्य-गत' इस पर शास्त्र-ध्येताओं का मतभेद हैं । फिर भी अधिक मत इसके "श्रौपम्य-गत" का ही है। कुछ शास्त्रकारों का यह भी मत है कि अपन्हुति के कितने ही भेद औपम्य-गत हैं, और कितने ही नहीं, पर वास्तव में देखा जाय तो बिना किसी प्रकार का साम्य किये किस प्रकार एक का निषेध कर उसके स्थान पर दूसरे का आरोप किया जा सकता है, क्योंकि अपन्हुति में शुद्धतः उपमेयोपमान का संबंध न होते हुए भी दोनों में कुछ न कुछ साम्य तो रहता ही है । ____रसगंगाधर-कार ने 'पर्यस्तापन्हुति' को 'दृढ़ारोप-रूपक' बतलाते हुए कहा है कि "यहाँ उपमान का जो निषेध किया जाता है वह उपमेय में उसका दृढ़ता पूर्वक आरोप करने के लिए ही होता है, इसलिए यह अपन्हुति नहीं। काव्य- प्रकाश (संस्कृत) में कहा गया है कि 'अप-हुति' कहीं शब्द-द्वारा प्रकट होतो है और कहीं अर्थ के द्वारा 'ऊह्य' होतो है, जिन्हे क्रमशः शाब्दी और प्रार्थी कहा जा चुका है। साथ ही प्रार्थी अपन्हुति कहीं कपटार्थक और कही परिणामार्थक शब्दों-द्वारा एवं कहीं अन्य प्रकार से भी बनती है ।" श्री मम्मट का यह अपन्हुति- निरूपण रुद्रट का संक्षिप्ती-करण है, साथ-ही रुय्यक-मान्य “विषयस्यापन्हवेऽ. पन्हुतिः" जिसमें अप्रकृत के साधन वा स्थापन का खुला निर्देश नहीं है, की आलोचना भी है। मम्मट जी ने अपन्हुति के भेद-प्रभेद निरूपण का विशिष्ट- सिद्धांतिक आधार न होने पर भी "एवमियं भंगयंतरैरप्यूह्या" कहते हुए दंडो के "इत्येपन्हुतिभेदानां लक्ष्यो लदयेषु विस्तरः" भाव को ही प्रकट किया है।" प्रथम सुद्ध (धरमाँ) अपन्हुति उदाहरन जथा- चौहरे चौक ते ( देखि) कलाधर पूरब ते कढ़यौ भाबत है-री। ठादौ संपूरन चोखो भरथौ, विष सों लहि घायँन' घूम घन-री ।। _पा०-१. (सं० प्र०) चौहरी चौक सी देख्यौ कला-मुख । (का०) (३०) चौहरो चौक सों देख्यौ कला-मुख । २. (का०) घायरि।
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