२४२ काव्य-निर्णय "बदि-बदि मुख-सॅमता लऐं, चदि भायौ निरसंक । ताते रंक मयंक-री, पायौ अंक कलंक ॥ जगमगात है होंन कों, या आनन-लों चंद । ताही ते पून-भरें, मंद परै तम फंद ॥ निस-दिन पूरन जगमगै, भाबै धोइ कलंक । तौ वाके मुख की प्रभा, पावै सरद-मयंक ॥" -सूक्ति-सरोवर ( ला० भ० दी०) ८४ ब्यंगारथ-बितरेक जथा- कहा कंज, केसर तिन्हें, किती' केतिकी बास । 'दास' बसें जो एक पल,वा 'पदमिनि'के पास ॥ वि०-"यहाँ 'पदमिनि' शब्द के सहारे 'संत' कवि की एक सुंदर सूक्ति नायिका-वर्णन के अंतर्गत याद आ गयी है, जैसे- "जमना के आगमन, मारग में भार-तन, भौरन की भीर निपेटी-सी लखि पायौ है। 'संतन' सुकवि सुख-खाँनि पदमिनि तेरे, रूप की तरंगनि अनंग दरसायौ है॥ बाहर कढ़न कहै तो सों सो अयाँनी कोंन, लैहै बदनामी धेरै घर-घर छायौ है। पट की लपट लपटाति ता दिनाँ ते आज, माँनों उन गलिँन गुलाब छिरकायौ है।" गालिव ( उर्दू) कहते हैं- "करता है जाके बाग में तू बेहिजाबियाँ । आने लगी है नगहते .गुल से सबा मुझे ॥" अथ रूपक-बरनन जथा- 'उपमाँ औ उपमेह ते, बाचक-धरॅम मिटाइ । एकै करि पारोपिणे, सो रूपक कहि जाइ। पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) कितिक...। २. (का०) (३०) (प्र०) जे...। ३. (का०) (०) (प्र०) भरु...। ४. (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) कविराइ...।
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