पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२७८

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काव्य-निर्णय २४३ भेद, जथा- कहुँ कहिए ये दूसरौ, कहूँ' न राखिऐ भेद । अधिक, हीन, 'सम' तीन-बिधि, ए 'तदरूप' अछेद ॥ वि०-"दास जी ने रूपक का लक्षण-"उपमानोपमेय से वाचक-धर्म को हटाकर ऐक्य रूप से प्रारोप" को, अर्थात् उपमेय में उपमान के निषेध-रहित अारोप को रूपक अलंकार कहा है। आरोप-'एक वस्तु में दूसरी वस्तु को कल्पना को कहते हैं । अस्तु, जहाँ निषेध के बिना उपमेय को उपमान रूप से कहा जाय वहाँ उक्त अलंकार कहा जायगा। ___रूपक का शब्दार्थ है-रूप-धारण करना । अतएव उक्त अलंकार में उपमेय उपमान का रूप धारण करता है और निषेध-विना या रहित शब्दों द्वारा इसका अपन्हुति से प्रथकत्व दिखलाना है, क्योंकि अपन्हुति में भी उपमेय को उपमान- रूप से कहा जाता है-उपमेय में उपमान का आरोप निषेध-पूर्वक किया जाता है, रूपक में नहीं। इसी प्रकार 'परिणाम' और रूपक को पृथक्ता दिखलाते हुए 'पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं, "जहाँ उपमान स्वयं किसी कार्य के करने में अस- मर्थ होने के कारण उपमेय से एक रूप होकर-उपमेय द्वारा होने योग्य कार्य को कर सकता हो, तव वहां परिणाम और जहाँ उपमान स्वयं किसी कार्य को करने में समर्थ हो, तब वहाँ रूपक कहा जायगा। पंडितराज की इस ब्याख्या को अलंकार-सर्वस्वकार नहीं मानते, वे कहते हैं-जिसे पंडितराज रूपक का विषय मानते है वह तो परिणाम का विषय है, क्योंकि जहाँ उपमान उपमेय का रूप धारण कर वह कार्य करता हुआ हो जो वास्तव में उपमेय करता है, तो वहाँ रूपक, रूपक न रहकर 'परिणाम' बन जाता है, रूपक नहीं,.... इत्यादि । अतएव रूपक (ब. भा० ) के 'भाषा-भूषण' के रचयिता महाराज यशवंतसिंह जी की भाँति- है 'रूपक' है भाँति को, मिलि तदरूप-अभेद । अधिक, न्यून, सैम, दुहुँन के, तीन-तीन ए भेद ॥ दास जी ने भी रूपक के "अधिक, हीन और सम" को प्रथम 'तदरूप' तथा 'अभेद' के साथ विभक्त कर उस ( रूपक ) के निम्नलिखित भेद, जैसे- "निरंग, परंपरित, परंपरित-माला, माला भिनपद से, रूपक-माला, परिणाम-रूपक साम्य-विषयक रूपक, उपमावाचक, उत्प्रेक्षावाचक और अपन्हुति-युक्त रूपक आदि पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) कहूँ-राखिऐ न भेद । २. (प्र०) सब विधि पुनि, ते तद्रुप अभेद । (का०)(३०) (सं० पु० प्र०) त्रिविधि पुनि, ते तदरूप अभेद ।