२५० काव्य-निर्णय अर्थात् , जहाँ वर्ण्य-विषय के लिये अवश्य अपेक्षित श्रारोप ( साधारण धर्म के प्रकाशक ) कारणभूत किसी अन्य पर हो तब वह कार्य-कारण रूप अारोप परंपरा के साथ होने से 'परंपरित रूपक' कहलाता है और इसके वाचक-शब्द के श्लिष्ट ( भिन्न-अर्थी ) होने, वा न होने से दो प्रकार का तथा शुद्ध और माला रूप होता है, जैसा नीचे दासजी के छंद में......" उदाहरन जथा- सब तजि 'दास' उदासता, राँम-नाम उर-आँन । ताप-तिनूंका तोम कों,' अगिन-किनका जाँन ।। अथ पर परित रूपक की माला-उदाहरन जथा--- कुबलइ-जीतिबे कों बीर-बरबंड राजें, करन पै जाइबे कों' जाचक निहारे हैं। सितासित-अरुनारे, पानिप के राखिवे कों, तीरथ के पति हैं अलेख लखि हारे हैं । 'बाँधिबे कों सर, मारि डारिबे को महा विष, मीन कहिबे को 'दास' मानस बिहारे हैं। देखति ही सुबरन-हिय हरिबे को पसि- ___ तोहर, मनोहर ए लोचन तिहारे हैं ।।* वि० - "दास जी कृत यह उदाहरण-'कुबलइ, करन, सितासित-अरुनारे युक्त तीरथ-पति ( तीर्थ-पति-प्रयाग), अलेख, मानम, सुबरन-हिय और पस्यतो- हर ( सुनार ) आदि शब्द श्लिष्ट-परंपरित होने के कारण उस ( परंपरित रूपक ) को माला है। श्लिष्ट परंपरित रूपक की 'माला' - जहाँ श्लेष से दो अर्थ लेते हुए कई रूपकों के आधार पर अन्य रूपक सिद्ध किया जाय," जिस प्रकार ऊपर के उदाहरण में। एक बात और, वह यह कि 'सावयव रूपक और पर परित रू.क का प्रथक्- करण करते हुए अलंकार-प्राचार्यों का अभिमत है- “सावयव रूपक में एक प्रधान आरोप होता है और अन्य (अारोप) उसके अंगीभूत । प्रधान आरोप पा०-१. (का०) कै । २. (सं० पु० प्र०) के .. | २. (३०) के... 1 ( स० पु. प्र०) कै... । ३. (३०) मोहि मारिबे को महा...। ४. (का०) (३०) (प्र०) हीरा...!
- सू० स० (भ० दो०) पृ० ३४६-३४७ । भा० भू* ( के० ) पृ० १२ ।