काव्य-निर्णय २४ तथा 'एकदेश विवत्तिक' रूप और होते हैं । दासजी ने जहाँ निरंग (निरवयव ) और पंरपरित, परंपरित की माला, भिन्न पद ( शब्द ) रूपक, रूपक की माला, परिणाम रूपक,समस्त-विषयादि रूप रूपक के जहाँ विविध भेद कहे हैं, वहाँ सावयव का एक भेद -'एक देश विवर्तिरूपक', निरवयव (निरंग) के दो भेद 'शुद्ध', और 'माला' रूप तथा पर परित के दोनों 'शिष्ट शब्दात्मक' तथा 'भिन्न शब्दा. त्मक' में से 'श्लिष्ट शब्द रूपक' और इस श्लिष्ट-शब्द-रूपक के शुद्ध और माला- रूप भेदों को त्याग दिया है, उनका वर्णन नहीं किया है। प्रस्तु, जहाँ अवयत्र- रहित केवल उपमान का उपमेय में श्रारोप हो, अर्थात् अवयवों के बिना उपमान का उपमेय में आरोप किया जाय, अथवा उपमान का मुख्य उपमेय अंगी पर ही आरोप हो, अन्य अंगों का सांगोपांग अारोपण न हो, वहाँ 'निरंग' रूपक कहा जाता है, जैसा कि दासजी के नीचे लिखे उदाहरण में।" निरंग रूपक-उदाहरन जथा- हरि-मुख पंकज, भों' चँनुष, खंजन-लोचन मित्त । बिंबाधर, कुंडल मकर, वसे रहत मो चित्त ॥ अथ परंपरित-रूपक लच्छन जथा- जहाँ बस्तु' आरोपिऐ, और बस्तु के हेत । स्लेष होइ कै भिन्न-पद, 'परंपरित' सो चेत ।। वि०-“जहाँ एक आरोप ( रूपक ) दूसरे अारोप (रूपक ) का कारण हो, एक रूपक का अाधार दूसरा रूपक हो--उसे पुष्टि करता हो, अर्थात् कार्यकारण रूप से श्रारोपों (रूपकों) की परंपरा हो, अथवा एक उपमेय में किसी उपमान का आरोप तभी हो जब एक अारोप दूसरे प्रारोप का कारण हो-दूसरे उपमेय में दूसरे उपमान का श्रारोप किया जा चुका हो, तो वहाँ पर परित रूपक कहा जायगा, क्योंकि इसमें एक रूपक का दूसरा रूपक आधार-भूत होने के कारण हो यह उक्त अलंकार कहलाता है । यथा- "नियतारोपणोपायः स्यादारोपः परस्प यः । तत्परंपरितंश्लिष्टे वाचके भेदभाजि वा॥" -काव्य-प्रकाश (सं०) १०,६५, पा०-१. ( का० ) (प्र०) 5... । (३०) भ्रव... | २. ( का०) (३०)(प्र०) बिंब अधर... | ३. ( सं० पु० प्र०) (प्र०) विषयः ।
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