पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२९३

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२५८ काव्य-निर्णय पति औ सुपति नेन-गति ज्यों तरल-तुरी', सुभासुभ मनोरथ रहे हैं अति लरि जू॥ आठों गोठ धरम की, आठों भाब सात्विक" की, त्यों, प्यादे 'दास' दुहूँघाँ प्रबल भिरे अरि जू। लाज श्री मनोज दोऊ चतुर खिलार उर- वाके, सतरंज कैसी बाजी धरो भरि जू ।। वि०-"दासजी का यह "उपमा-वाचक रूपक' का उदाहरण रीति-शास्त्र के "नायिका-भेद" के अनुसार "मध्या" नायिका का उदाहरण कहा जा सकता है, मध्या- "नब जोबन पूनवतो, लाज-मनोज समान । ता सों 'मध्या' नायिका, बरत सुकबि-सुजॉन ॥" __-_०नि० (भि० दा०) अतएव नायिका-भेद के ग्रंथों में मध्या के चार भेद विविध नामों से कहे गये हैं । केशव और चिंतामणि ने-आरूढ यौवना, प्रगल्भवचना, प्रादुर्भूत मनोभवा और सुरति-विचित्रा, इन्हीं को 'देव कवि' ने वयक्रमानुसार रूढ़यौवना (१७ वर्ष), प्रादुर्भूतमनोभवा (१८ वर्ष), प्रगल्भ-वचना (१६ वर्ष) और विचित्र- सुरता (२० वर्ष) नाम से माने हैं । ये भेद केशव-चिंतामणि-प्रयुक्त (कहे गये) भेदों को वयक्रमानुसार बनाकर आगे-पीछे करना मात्र है । रसलीन ने भी मध्या के-उन्नतयौवना, उन्नतकामा, प्रगल्भवचना और सुरति-विचित्रा-रूप चार भेदों को हो प्राथमिकता देते हुए 'लघुलज्जा' नाम का पाँचवाँ भेद और कहा है । आप "केशव-चिंतामणि-एण्ड को" से प्रथक् नहीं गये, किंतु मध्या के केशव-चिंतामणि-प्रयुक्त श्रारूढ-यौवना रूप प्रथम भेद को 'उन्नत यौवना' और तीसरे भेद 'प्रादुर्भूतमनोभवा' को “उन्नतकामा" देकर अन्य द्वितीय-चतुर्थ भदों को यथानाम-रूप-ही रहने दिया है । मतिराम और पदमाकर ने उपयुक्त भेद नहीं माने हैं। मान-प्रादुर्भूत मध्या के 'धीरादि' तोनों भेद नंददास (अष्टछाप) कृत 'रस-मंजरी' के अनुसार अवश्य माने हैं और इनके सुंदर उदाहरण भी दिये हैं । ___ साहित्य-दर्पण (संस्कृत) में विश्वनाथ चक्रवर्ती ने 'मध्या नायिका' के विक्षित्र-सुरता', प्ररूढस्मरा२, प्ररूढ़ यौवना, ईपत्प्रगल्भवचना" और मध्यम- पा०-१.( का० ) (३०) (प्र.) औ...। २. (३०) तुरै...। ३. (का० ) (वे)(प्र०) मनोरथ रथ रहे लरि जू। (सं० प्र० प्र०)...रहे हैं लरि । ४. ( का०) (वे.) सात्त्विकी.... ५. (३०) (सं० प्र० प्र०) ज्यों....। ६. (सं० प्र० प्र०) (३०) राखी...। (का०) (प्र.) रखी...!