पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२९४

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काव्य-निर्णय २५६ ब्रीडता५ नाम से पाँच भेद कहे हैं, किंतु उदाहरण-'विचित्रसुरता' और 'प्ररूढस्मरा' के-ही दिये हैं। दासजी ने अपने नायिका भेद के ग्रंथ शृगार- निर्णय में-साधारण मध्या, स्वकीया मध्या और परकीया मध्या भेद भी मान इनके सुंदर उदाहरण दिये हैं। यही नही, ब्रज-रीति-ग्रंथों में मध्या के अवस्था-भेदानुसार--प्रोपि पतिका, आगत्पतिका, आगच्छत्पतिका, आगमण्यत्पतिका, खंडिता, कलहांतरिता, विप्रलब्धा, उत्कंटिता, वासकसज्जा, स्वाधीन पतिका, अभिसारिका, प्रवत्स्यत्पतिका भेद कहकर सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। दासजी ने ये भेद नहीं माने हैं, पर अन्य साहित्यकारों ने मध्या का मुरबैठना, मान, सुरतार भ, रति, विपरीति और सुरतांत का भी वर्णन बहुत सुदर रूप से किया है। वात्स्यायन ने कामसूत्र की द्वितीय-मंजरी में नायिका के अवस्थानुसार तीन विकल्पमान मध्या को 'तरुणी' संज्ञा दी है। यथा- "यावच्छोडशसंख्यमब्दमुदिता बालाततस्त्रिंशतम् , यावरस्यात्तरुणीति बाण विशिख प्रख्यं तु यावद्भवेत् । सा प्रौढेत्यभिधीयते कविवरैवृद्धातदूर्व स्मृता, निया कामकजाकलापविधिषुत्याज्या सदा कामिभिः ॥" --का० सू० ३,२ वास्तव में 'उपमा-वाचक रूपक' के रत्न-जटित डब्बे में प्रस्तुत दासजी का यह रमणीय-रत्न रूप उदाहरण बहुत सुंदर है । भारतीय प्रसिद्ध खेल 'शतरंज' का-'काले-सफेद' या लाल-हरे रंगों से र जित मुहरों का लज्जा और मनोज के रूप में सुंदर ही नहीं-'सुदर किन्न सुदरम्' है। 'मध्या के ब्रज-साहित्य में एक से एक बढ़कर मनोरम उदाहरण हैं, जिन्हें श्री नंददासजी की इस मनोहर सूक्ति के सहारे- ____ 'भरे भवन के चोर भए, बदलत-ही हारे।' हार जाते हैं--यह अच्छा, कि यह अच्छा, कह-समझ कर ही थके जाते हैं, फिर भी दो उदाहरण देने का लोभ संवरण नहीं कर सके, वे उदाहरण निम्न हैं - "मेरी कुल-पूजज सदा रॉनी-ठकुरानी तुही, तोहि नित आँखिन औ हिय में भरति -हों। . तेरे-ही संजोग हित दच्छिन रसीले भग, मौनि-मॉनि भालिन की सीख निदरति हों । भाँनि बन्यों जोग अब मेरे बड़े भोगॅन ते, या-ही ते अधीनता ले दीनता करति हों।