काव्य-निर्णय २६३ समस्त-विषयक परिनाम रूपक जथा-- अँनी नेह नरेस की माधौ बँने, बनीं राधे मनोज की फौज खरी। भटभेरौ भयौ जमुना-तट 'दास' जू साध दुहूँन की सॉन-धरी ॥ उर जात चँडोलँन गोल-कपोलँन, जौ लों मिलाप-सलाह करी। तब लों-हीं' हरौल-भटाच्छन सों, री कटाच्छन की तरबार परी॥ अथ उल्लेखालंकार लच्छन जथा- एकै में बहु बोध कै, बहु गुन सो' 'उल्लेख'। परंपरित - मालाँन सों, लीनों भिन्न बिसेख ॥ वि०-"संस्कृत-अलंकाराचार्यों ने" अभेद-प्रधान अारोप मूलक अलंकार "उल्लेख" (उल्लेख) के लक्षण के प्रति कहा है कि "जहाँ एक वस्तु वा व्यक्ति को निमित्त-भेद से---ज्ञाताअों अथवा विषय-भेद के कारण अनेक प्रकार से "उल्लेख' (वर्णन ) किये जाने पर होता है। क्योंकि उल्लेख का अर्थ है- "लिखना, उत्कृष्ट रूप से वर्णन करना।” इन्होंने उल्लेख को "प्रथम' (अनेक व्यक्ति एक-ही वस्तु वा व्यक्ति को अपने-अपने अनुभव और रुचि के साथ कितने ही रूपों में देख उसका अनेक प्रकार से वर्णन करें ) और "द्वितीय”–(एक-ही वर्ण्य-वस्तु का एक ही व्याख्याता कई प्रकार से उसके गुणों के अनुसार वर्णन करे) दो रूपों में -भेदों में भी माना है। यही नहीं, आप महानुभावों ने इसके "शुद्ध" (जिसमें किसी अन्य अलंकार का मिश्रण न हो ) और "संकीर्ण" (अन्य अलंकारों से मिश्रित ) दो भेद और माने हैं तथा भ्रांतिमान-मिश्रित, रूपक-मिश्रित. रूपक के स्वरूप, फल और हेतु मिश्रित एवं इसकी ध्वनि के भी सुंदर उदाहरण दिये हैं। दासजी ने इन प्रथम और द्वितीय रूप दोनों ही उल्लेखालंकारों का लक्षण इस छोटे-से दोहे में किया है । ____ उल्लेख का विषय दासजी के मतानुसार "रंपरित माला-रूपक' अथवा "निरवयव-माला रूपक और भ्रांतिमान् से कुछ-कुछ मिल-सा जाता है, पर उसकी विशेषता--भिन्नता दिखलाते हुए साहित्यकारों का कहना है कि “निरवयव-माला रूपक में ग्रहण करने वाले व्यक्ति अनेक नहीं हुअा करते, उल्लेख में हुअा करते हैं। इसी प्रकार एक वस्तु में दूसरी वस्तु के आरोप होने पर 'रूपक' होता है, उल्लेख नहीं, किंतु एक वस्तु का उसके वास्तविक धर्मों-द्वारा अनेक प्रकार से पा०-१. ( का० ) राधौ...। २. ( वे० ) ( प्र०) सान...। ३. (वे. ) जु सान . । (सं० पु० प्र०) व्यों सान...। ४. ( का० ) तौलों बीर हरौल...। (३०) तौलों हरौल... (सं० पु० प्र०) तौलों वाके भटाच्छन...। ५. ( का० ) (३०) सों...।
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