२६२ काव्य-निर्णय ___“जागे हो रेंन तुम सब, नेनों अहँन हमारे । तुम्ह कियौ मधु-पान, धूमत हमारौ मॅन, काहे ते नंद-दुलारे ॥ उर नख-चिन्ह तिहारें, पीर हमारे, कारन कोंन पियारे । 'नंददास'-प्रभु न्याइ स्याँम घन, बरखे अनत जाइ हम पै झूम मारे ॥" पुनः उदाहरन जथा- केलि-थल कुंड-साजि, सँमधा'-सुमन-सेज, बिरह की ज्वाल बाल बरै प्रति रोम है। उपचार आहुति के बैठी सखी आस-पास, सबा पल-नेन नेह-सुवा अधोंम है । बलि-पसु मोद भयौ, बिलपॅन - मंत्र ठयो,' अबधि को पास गँनि लयौ दिन नोंम है। 'दास' चलि बेगि किन कीजिए सफल-कॉम, रावरे - सदँन स्याँम, मन को होम है। वि० - "यह विरह-निवेदन रूप रूपक में रूपक का उदाहरण अति उत्तम है, इस पर कुछ लिखना-टोका-टिप्पणी करना इसके रूप ( सौंदर्य ) को धुंधला करना है। फिर भी एक लोभ संवरण नहीं कर सके हैं, और मथुरा- निवामी कविवर “नवनीत" जो का एक छंद इसके साथ दे रहे हैं। पाठक देखें दोनों रत्नों में कोंन अधिक उज्वल है । अस्तु- "सरस सुधारि करि बेदी प्रेम-बेदना की, __ मदन प्रधान पूजा-पाठ-ध्यान धरि है। 'नवनीत' मंडप सुहायो अपबाद-ही को, रोन - रिचान के प्रयोगन उचरि है। पूरित बियोग - आँच हृदै-कमल के कुंड, ____एक तंत्र गोपिन के जूथ अनुसरि हैं। सकल सँजोग-सुचि नेन के स्व बाँन-भरि, धृत-असुान बैठि प्राँन होम करि हैं। "घृत-सुवा, नेना-बा, रोदन-रिचा विभाग । तँन आहुति बिरहागि में, करें कामिनी जाग॥" पा०-१. (३०) (०) समिध...। २. ( का०) ऑन...। ३. (३०) हुने .. ४. (प्र०) ठये...।
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