पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३०५

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२७०
काव्य-निर्णय

२७० काव्य-निर्णय अभेदता है, उनमें अन्य सब का एक-ही में अध्यवसाय कर (उसका) सब से भेद प्रकट किण जाय, वहाँ होती है । श्रीजयदेव का कहना है-- "भेदकातिशयोक्तिश्चेदेकस्यै वान्यतोच्यते ।" -चंद्रालोक, ५.४५ जहाँ केवल कहने का ढंग बदल कर कहने के कारण कही हुई बात में जोर लाने की इच्छा से जो बात कही जाय", वहाँ भेदकातिशयोक्ति होती है। भेदकातिशयोक्ति में 'अभेद में भेद" और रूपकातिशयोक्ति में "भेद में अभेद" होता है।" भेदकातिसयोक्ति उदाहरन जथा- भाबी, भूत, बर्तमान माँनबी न होइ' ऐसी, दैवी-दॉनबीन-हूँ सो न्यारौ२ इक डोर-हीं। या बिधि को बँनिता जो बिधिनाँ बनायौ चंहें3, ____"दास" तौ सँमझिए प्रकासै निज बौर -हीं ।। कैसें लिखै चित्र कों चितेरौ चकि जात लखि, द्वैक दिन बीतें दुति और-और दौर-हीं । आज भोर और-हीं, पैहैर होत और-हीं है, दुपहर और-हीं, रज॑नि होत और हीं ॥ वि०-दासजी का यह उदाहरण "अभेद में भेद"-रूप भेदकातिशयोक्ति का है जो "ौरे" शब्द से प्रकट हो रहा है । भेदकातिशयोक्ति के उदाहरण पद्माकर' और "द्विजदेव" --- पूरा नाम "महाराज मानसिंह" अयोध्या के बहुत सुंदर कहे जा सकते हैं, यथा- "ौरें भाँति कुजैन में राग-रत भोर-भीरि, और भाँति मौरन में बौरन के चै गए । कहै 'पदमाकर' सु और भाँति गलियाँन छलिया-छबीले छल औरें छबि छवै गए । पा०-१.(सं० प्र० प्र०) | का०) (३०) है है...। २. (सं० प्र०- प्र. ) न्यारें ये दौर.... ( का०) (वे.) न्यारी यह दौरई । ३. (वे. ) चाहें...४. (का० ) (३० ) औरई। ५. (का०) (सं० प्र० प्र०) चित्रित कर धों क्यों चितेरौ यह चालि कालि, परों दिन-बीते दुति औरे और दौरई। (०) चित्रित करै क्यों है चितेरी यह वालि-कालि- परों दिन बीते द्युति औरे और दौरई। ६. (का० ) (३०) (प्र०) औरई । ७. ८, ६. (का० ) (३०) (प्र. ) ( स० पु० प्र०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) औरई ।।