पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२७१
काव्य-निर्णय

२७१ काव्य-निर्णय और भाँति विहँग-सँमाज में अवाज होति, भबै रितुराज के न भाज दिन-ई गए। और रस, और रीति, औरें रंग, औरें राग, औरें तन, और मॅन, औरें बन है गए ॥" और भाँति कोकिल-चकोर ठौर-ठौर बोलें, और भाँति सबद पपीहँन के म्यै गए । और भाँति पल्लब लए हैं बृद-बूंद-तरु, ____ और छबि - पुज - कुंज - कुजन उँने गए ॥ औरें भाँति सीतल-सुगंध-मंद डोले पोन, "द्विजदेव" देखत न ऐसे पल गए। "और रति, औरें रंग, औरें साज, औरें संग, और बन, औरें छैन, औरें मन है गए ॥" ये दोनों उदाहरण वसंत-अागमन के हैं तथा "औरें" शब्दों के द्वारा वन- कुजादि में भेद न होते हुए भी भेद कहा गया है। इन्हें हम भेदकातिशयोक्ति की 'माला' भी कह सकते हैं, क्योंकि दोनों छंदों में "औरें" शब्द-द्वारा वार्स- तिक-सामिग्री रूप उपमेयों की भिन्नता कही गयी है । ये दोनों ही छंद उत्तम हैं, पर दास जी का उदाहरण- "आज भोर और-हों, पैहैर होति और-हीं, दुपहर भोर-हीं, रजनि होति और-हीं।" का जवाब नहीं है, दोनों ही इसके सम्मुख दुपहर के दीपक-से हैं । उर्दू के महा- कवि 'अकबर' ने ठीक-ही कहा है- "लहज़ा-लहजा है तरकी पर तेरा हुस्नोजमाल । जिसको शक हो, तुझे देखे तेरी तस्वीर के साथ ॥" पुनः यथा- अनन्वयौ की व्यंग में,' भेदकातिसै - उक्ति । उतै कियौ स्थापित निरखि, परबीनन की जुक्ति । वि०-"दासजी ने अनन्वय ( एक ही वस्तु को उपमानोपमेय-भाव से कहना) के व्यंग्य से भी 'भेदकातिशयोक्ति' मानी है, पर उदाहरण नहीं दिया है। पा०-१. (का०) (३०)(प्र.) यह...।