पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३०७

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२७२
काव्य-निर्णय

२७२ काव्य-निर्णय द्वितीय संबंधातिसयोक्ति-लच्छन जथा- संबंधातिस-जुक्ति कों, 'इ-बिधि' बरनत लोग । कहूँ जोग ते अजुग है, कहुँ अजोग' ते जोग ।। वि०-“दासजी ने 'संबंधातिशयोक्ति' को “योग्य में अयोग्य" "और अयोग्य में योग्य" रूप दो प्रकार की बतलाया है। अर्थात् , जहाँ योग्य ( वस्तु वा पदार्थ ) में अयोग्यता दिखलायी जाय वहाँ 'संबंधातिशयोक्ति' का पूर्व भेद और जहाँ अयोग्य ( वस्तु वा पदार्थ ) में योग्यता स्थापित की जाय वहाँ संबंधा- तिशयोक्ति का दूसरा भेद कहा जायगा । संस्कृत में-अयोग्य में योग्यता वर्णन को, संबंधातिशयोक्ति ( जहाँ उपमेयो- पमान में वास्तविक संबंध न होने पर भी संबंध बतलाया जाय) और दूसरे अयोग्य में योग्यता रूप वर्णन को "असंबंधातिशयोंक्ति ( जब किसी को योग्य होने पर भी अयोग्य बतलाया जाय, अथवा संबंधित प्रति वस्तुओं का प्रतिषेध किया जाय ) कहा है, जो दासजी से भिन्न पड़ता है । भाषा-भूषण में भी संस्कृत- अनुसार प्रथम संबंधातिशयोक्ति के विषय में "अयोग्य में योग्यता और दूसरी संबंधातिशयोक्ति में-योग्य को अयोग्य कहना-ही लक्षण बतलाया है, यथा- "संबंधातिसयोक्ति जहँ, देत अजोग-हि-जोग।" "अतिसयोक्ति दूजी वहै, जोग अजोग-बखान ॥" अस्तु, असंबंध में संबंध-कल्पना किये जाने पर “संबंधातिशयोक्ति" कही जाती है और इसके संस्कृत में "संभाव्यमाना ( यहाँ-'यदि', ब्रजभाषा में 'जो' श्रादि शब्दों के प्रयोग-द्वारा असंभव कल्पना की जाय) और "निर्णीयमाना" (जहाँ निश्चित रूप से असंभव को कल्पना की जाय-निर्णीत रूप से असंभव वर्णन किया जाय) दो भेद किये हैं । प्रथम उदाहरन जोग ते अजोग की कल्पना को जथा- छामोदरी, उरोज तुब, होत जु' रोज उतंग । परी, इन्हें या अंग में, नहिं समान को ढंग ।। पा०-१. (प्र०), कहूँ अजोगै जोग। २. (३०) तू...। ३. ( ३० ) उरोज उतंग । ४.(३०) ये...।