पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३११

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२७६
काव्य-निर्णय

२७६ काव्य-निर्णय तृतीय चपलातिसयोक्ति लच्छन जथा- निपट उतालो' सों जहाँ, बरनत हैं कछु काज । सो 'चपलातिस-उक्ति' है, सुनों सुकबि सिरताज ।। वि.-"जहाँ निपट (अति, एकदम ) उताली (शीघ्रता ) से किसी कार्य का वर्णन किया जाय, वहाँ सुकवियों के सिरताजों ने 'चपलातिशयोक्ति' कही है। दूसरा लक्षण है -"जब कारण के बाद विद्य तगति से शीघ्र-ही कार्य का होना कहा जाय-कारण का नाम लेते ही कार्य हो जाय, वहाँ चपलातिशयोक्ति होती है।" उदाहरन-जथा- काहू कह्यौ आइ कंसराइ के मिलॅन-काज,२ लेन आयौ काँन्हें कोऊ मथुरा की' लंग-ते । त्यों-हीं कह्यौ आली सों न गयौ हरि, ज्वाब दियौ मिलें हम कहा ऐसे मूंढ़ बिन-ढंग ते ॥ 'दास' कहै ता-सँमें सुहागिन को कर भयौ, ___ बलया - बिगत दुहूँ बातन - प्रसंग ते। आधिक' ढरकि गई बिरहा की छाँमता ते, आधिक तरकि गई ऑनद - उमंग ते॥ वि०--"दासजी द्वारा दिया गया "चपलातिशयोक्ति का यह उदाहरण नायिका-भेद के अनुसार “प्रवत्स्यत्प्रेयसी-नायिका" (जिस नायिका का प्रिय प्रदेश -दूसरे देश जाने को प्रस्तुत हो ) का भी उदाहरण है । प्रवत्स्यत्प्रेयसी-मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा, परकीया और गणिका भी होती हैं । गच्छत्पतिका भी इसे कहते हैं। यही नहीं, इन नायिका-भेद-निष्णातों ने प्रवत्स्यत्प्रेयसी-'प्रियतम के होने वाले वियोग की आशंका से दुखित होनेवाली' को भी माना है, यथा- "होनहार पिय के विरह, विकल होइ सो बाल । ताहि 'प्रयच्छतिप्रेयसी,' बरनत बुद्धि-विसाल ॥" -रसराज (मतिराम) पा०-१.(प्र०) सीघ्रता...। २.(सं० पु० प्र०) (का० ) (३०) काहू सोध दयौ कसराइ के मिलाइवे को, ले न...। ३. ( का० ) (प्र० ) मथुरा-अलंग ते...। (३०) (सं० पु० प्र०) द्वारिका-अलंगते । ४.(सं० पु० प्र०) (प्र०) सोती गयी वह-अव देव, मिले हम कहा ऐसौ मूंढ... (का०) (३०)...कहा ऐसौ...। ५.(सं० पु० प्र०) भाषी सो...आधी...1