पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२८३
काव्य-निर्णय

काव्य-निर्णय २८३ रसलीन-कृत ये दोनों दोहा वास्तव में 'अत्यंतातिशयोक्ति' अलकार से अलकृत ब्रजभाषा-साहित्य की अमूल्य निधि हैं । द्विजदेव ने भी इस अलंकार से अलंकृत उक्त नायिका का वर्णन किया है, और खूब किया है, यथा- "बादि-ही चंदन चारु घसै, घनसार घनों घिसि पंक बनावत । बादि उसीर-समीर है, दिन-रेंन पुरेंन के पात-बिछावत ॥ आप-ही ताप मिटी 'द्विजदेव' सुदाघ-निदाघ की कोंन कहावत । बाबरी, तू नहिं जॉनति प्राज, मयंक-लजावत मोहन-मावत ॥" "न पूछो कुछ शबे-बादा, बला की इन्तज़ारी है। सदा पर कॉन, दर पर आँख, दिल में बे करारी है ॥' कोई शायर अतिसयोक्ति के अन्य-भेद कथन जथा- "अतिसयोक्ति' संभावना, संकर करें हु'निबाहु । उपमा और अपह त्यौ, रूपक-उत्प्रच्छाहु॥ अथ प्रथम सभाबनातिसैजुक्ति उदाहरन जथा- सागर-सरित-जल' जहँ-लों जलासै जग, सब में जौ क्यों हूँ कल-कज्जल रलाब-हीं। अबनि-अकास भरि कागर गँजाइ कल्पतरु ___ कलँम सँ मेर-सिर बैठक बनाव-हीं॥ 'दास' दिन-रेन कोटि-कलप लों सारदा सहस- कर है जो लिखबे में चित्त कों चलाब-हीं। होइ हद काजर - कलँम - कँगान' को, तऊ' गुपाल-गुन-गन को हद नहिं पाब-हीं । पा०-१. (का०) (३०) करौ । (प्र० ) करहु " । २. ( का० )(वें । (प्र०) सर" | ३. (का०)(३०)(प्र.) के हूँ किल कज्जल"। ४. (का० ) (३०)(प्र०) रलावई । ५. (३०) भरी" | ६. (का० ) कमलकृस मेरु सिर... । (३०) कलमक्स मेरु सिर... । (प्र.) "भकास होइ कागद कलपतरु कलम सुमेर"; ७. (का० ) (३०) (प्र०) बनावई । म (का०) (३०) ही चित्त लावई । (प्र०)" चितलावई । ६.( का० ) कागदन की । (३०) कागजन को" । (प्र०) कागरन को । १०.(का०)(प्र०) तऊ न हद पावई । (३०) तऊ न हह पावई ।