काव्य-निर्णय २६३ अस्य तिलक इ. व्यंगारथ से राम को भमल जस जगते अधिक है, कयौ । पुनः उदाहरन जथा- अँनियत जा के उदर में, सकल लोक-बिस्तार । 'दास' बसे तो उर सदों,' सोई नंद-कुमार ॥ वि०--"दासजो के इस दोहे के साथ 'रसलीन' कवि के निम्न-लिखित दोहे भी देखने योग्य हैं- "तीन पेंड जाके अहो, त्रिभुवन मे न सँमाहि। धुनि राधे, राखति तिन्हें, लोयन-कोयन-माँहि ॥ तुम गिरि लै नख पै धरयौ, हम तुम को दृग-कोर । इन हूँ में तुम-हीं कहौ, अधिक कियौ को जोर ॥ घट - बढ़ इनमें कोंन है, तुही साँवरे ऐंन । तुम गिरि लै नख पै धरयो, हम गिरिधर ले नेन ॥" और हठीजी कहते हैं- गिरि-पति लागी मेरु, मेरु-पति लागी भूमि, भूमी-पति लागी कौल-कच्छप के चारी हों। दिग-पति लागी दिगपालन के हाथ 'हठी', सुर - पति लागी सुरराज छत्रधारी सों। दौन-पति करन, करन - पति लागी बलि, बलि-पति लागी कैलास के बिहारी सों। तीनों लोक-पति की लगी है बीर अज-पति सों, ब्रज-पति की लगी है वृषभान की दुलारी सों॥" अथ अल्प अलंकार बरनन जथा- अल्प-अल्प माघेइ ते, सूच्छम होइ अधार । "छला छगुनियाँ-छोर कौ, पोहचेन' करत बिहार ॥" वि.-"जहाँ अति अल्प ( सूक्ष्म ) प्राधेय से बड़े आधार को अल्प पा०-१.( स० पु० प्र०) कहूँ । २. (प्र०) भुज में...।
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