२६६ काव्य-निर्णय श्रादि की स्थिति देह के बिना भी संसार में कही गयी है, इस लिये यहाँ प्रथम विशेषालंकार है। दासजी के इस दोहे के कई पाठांतर मिलते हैं, प्रथम जैसे- "सुभ दाता, सूर-हुँ सुकवि,सेत करें प्राचार । बिना देह के 'दास' ए, जीब तरें संसार ॥" और दूसरा - सूरबीर, दाता, सुकवि, सेत करावन हार । बिना देह-हू 'दास' ए, जीबत इहि संसार ॥" पर, बहु हस्तलिखित प्रतियों द्वारा मान्य पाठ अपर मूल में दिया गया है । दूसरौ उदाहरन बिसेस को एक ही ते बहु सिद्ध जथा- तिय, तुव तरल-कटाच्छ-सर,' सहें धीर उर-धारि । सही माँनियो' तिन सहे, तुपक, तीर, तरबारि ।। तीसरे बिसेस को उदाहरन एकै सब थल बरनिबौ जथा- जल में, थल में, गगन में, जड़-चेतन में 'दास'। चल-अचलँन में एक-ही, परमाँतमाँ परकास ।। "इति श्रीसकल कलाधर कलाधरयंसाबमंत श्रीमन्महाराज कुमार श्रीवाबू हिंदूपति विरचिते 'काव्य-निरनए' प्रत्युक्तादि-अलंकार यरनन नाम एकादशोल्लासः ।" (११; पा०-१. ( का० )(सं० पु० प्र०)(३०) जे । (प्र.) ये.... २ (का०)(३०) सही मान ते सहि चुके । (प्र०) सही मानिएँ, तिन...। ३. ( का०)(40)(प्र.) (सं० पु० प्र०) चर-अचरन में...।
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