पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३३४

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काव्य-निर्णय २६६ २, कार्य से कारण की प्रतीति में, कारण से कार्य की प्रतीति में, ३. साधर्म्य पूर्वक तुल्य से तुल्य की प्रतीति में, वैधयं पूर्वक तुल्य से तल्य की प्रतीति में" और निर्माण किये । प्राचार्य मम्मट ने इन्हीं भेदों को अपनाया, इन्हीं का परिस्कार किया, किंतु अप्रस्तुत से प्रस्तुत के विधान में रुय्यक मान्य ऊपर लिखे विभाजन रूप- त्रिविध संबंधों का उल्लेख नहीं किया । तुल्य से तुल्य की प्रतीति रूप अप्रस्तुत प्रशंसा के विवेचन में आपने कुछ विशेषता अवश्य दिखलायी, जो रुय्यक की की परिभाषा में अस्पष्ट थी-प्रस्कुट नहीं थी। ब्रजभाषा-रीति-थ-रचयिताों ने, जिनमें भापा-भूषण के कर्ता महाराज जसवंत सिंह और मतिराम (ललित-ललाम) आदि प्रमुख हैं, इसके दो-ही भेद माने हैं, यथा-- "अलंकार है भाँति को, अप्रस्तुत-परसंस। इक बरनत प्रस्तुत-बिना, दूजौ प्रस्तुत अंस ॥" -भाषा भूषण पर चिंतामणि (कविकुल-कल्पतरु), दूलह कवि (कविकुल-कंठाभरण) और पद्माकर (पद्माभरण) ने ऊपर लिखे पाँच भेद माने हैं । दासजी ने प्रथम-प्रस्तुत- अप्रस्तुत, समासोक्ति, लक्षित प्रस्तुतांकुर, व्याजस्तुति-लक्षित प्रस्तुतांकुर, तदनंतर ऊपर लक्षित "अप्रस्तुत-प्रशंसा के कार्यकरण, सामान्य-विशेष और सादृश्य से निबंधित पांचों भेद, पुनः प्रस्तुतांकुर और व्याजस्तुति, समासोक्ति, ब्याजस्तुति के लक्षण-उदाहरण, अप्रस्तुत-प्रशंसा से व्याजस्तुति की भिन्नता आदि का वर्णन किया है।' प्रथम प्रस्तुत-अप्रस्तुत वरनन जथा- कवि-इच्छा जिहिं कथुन की, 'प्रस्तुत' ताको जाँन । अन चाँहयौ कहिबौ परै, सो 'अप्रस्तुत' माँन ।। ___अतः अस्तुत-प्रसंसा जथा- अप्रस्तुत के कहति-हो, प्रस्तुत जॉन्यों जाइ। 'अप्रस्तुत-परसंस' तिहिं, कहत सकल कबिराइ । समासोक्ति-लच्छित प्रस्ततांकुर, जथा- दोऊ प्रस्तुत देखिकें, 'प्रस्तुत-अंकुर' लेखि । सँमासोक्कि प्रस्तुत-हिं ते, भप्रस्तुत प्रबरेखि ॥ पा०-१. ( का० ) अनचाहि हूँ सु कहे परैः । (३०) मनचाहित-हूँ कहि परैः । २.(प्र०) कहिये फो... | ३. (का० ) कहत जहँ । ४. ( का० )(प्र०) कह-हिं...।। . . का० मु०-'प्रस्तुतांबुर समासोक्ति लच्छन । ५. (प्र.) होत जहैं...।