३०४ काव्य-निर्णय तुल्य प्रस्ताव में तुल्य को उदाहरन जथा- तुहीं बिसद जस भाद्रपद, जग को जीबन देत । रुचे चातकै कातकै, बूद-स्वाँति के हेत ॥ वि०-'संस्कृत-अलंकाराचार्यों द्वारा वर्णित दासजी का यह छंद "सारूप्य- निबंधना" का उदाहरण है, जो "तुल्य प्रस्ताव में तुल्य" वा "कहूँ सहस (सरिस) सिर डारिके, कहत सहस (सरिस) सों बात" का-ही नामांतर है । सारूप्य-निबंधना "प्रस्तुत को न कह उसके समान अप्रस्तुत को कहा जाय, समान अप्रस्तुत का वर्णन कर प्रस्तुत का बोध कराया जाय', अर्थात् किमी वस्तु के प्रस्तुत रहने पर उसके तुल्य किसी अप्रस्तुत वस्तु का वर्णन किया जाय, को कहते हैं, यथा- "तदन्यस्य वचस्तुल्ये तुल्यस्यति च......." -काव्य-प्रकाश (सस्कृत) १०, १६ । और इस "तुल्ये प्रस्तुते तुल्याभिधाने..." ( काव्य-प्रकाश, संस्कृत १०वाँ उल्लास) अर्थात् "तुल्य के प्रस्तुत रहने पर किसी तत्त ल्य अन्य पदार्थ के कथन के" - "श्लेप-हेतुक, समासोक्ति-हेतुक और सादृश्य-हेतुक" तीन प्रकार (भेद) कहे हैं । कोई-कोई इन तीनों के "श्लेप-हेतुक (विशेपण-विशेष्य दोनों का श्लिष्ट होना), श्लिष्ट-विशेषण (केवल विशेषण का श्लिष्ट होना ) और सादृश्य-मात्र (श्लिष्ट शब्द के प्रयोग-बिना अप्रस्तुत का ऐसा वर्णन जो प्रस्तुत से समानता रखता हो) नाम भी कहते हैं । साहित्य-दर्पण (संस्कृत) में इसके दो ही रूप -"तुल्ये प्रस्तुते तुल्यामिधाने च द्विधा" अर्थात् , "तुल्य के प्रस्तुत होने पर तुल्य के अभि- धान में दो ही भेद मानते हुए उन्हे "श्लेषमूला, सादृश्यमात्र मूला च" कहाहै । वहाँ (साहित्य-दर्पण में) "श्लेपमूला" के भी- ___ "श्लेषमूला पि समासोक्तिवद्विशेषणमात्रश्लेषे, श्लेषवद्- विशेष्यस्यापि श्लेषे भवतीति द्विधा ।" अर्थात . "श्लेपमूलक सारूप्प-निबंधना" भी समासोक्तिकी भांति केवल विशे- पणों के और श्लेप की भाँति विशेष-विशेष्य दोनों के शिनष्ट होने पर भी होती है", कहते हुए इसके भी दो भेद माने हैं । कोई-कोई इस सारूप्य-निबंधना के तृतीय भेद "सादृश्य-मान-निबंधना" के भी-अनध्यारोप-द्वारा" (अारोप के बिना ), 'अारोप-द्वारा' ( आरोप के साथ ) और "अारोप-अनारोप-द्वारा" (अारोप-अनारोप के बिना ) तीन भेद और कर इनके उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं।
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