काव्य-निर्णय वि०-दासजी ने पूर्वोक्त 'दास उसासँन', 'श्रारिज श्राइबौ०'और 'सिंघनी श्री मृगनों की.' इन तीनों उदाहरणों के शीर्षकों में प्रस्तुतांकर का नामोल्लेख भी किया है तथा इनसे भी पूर्व-'दोऊ प्रस्तुत-देखिके, प्रस्तुत-अंकुर लेखि'... "भी कहा है। श्रस्तु, प्रस्तुतांकुर-'एक प्रस्तुत के वर्णन से दूसरे प्रस्तुत का वर्णन होने पर माना जाता है। यहां दोनों ही एक दूसरे से अंकुरित होते हैं, क्योंकि इस अलंकार में प्रायः ऐसा भी होता है कि कोई अलंकृत वाक्य किसी दूसरे को सुनाकर किसी अन्य से कहा जाय तो वे दोनों अपने-अपने ऊपर घट मान अपना-अपना भाव समझ लेते हैं। कुवलयानंद (संस्कृत) के कर्ता ने 'प्रस्तुत के द्वारा किसी अन्य वांछित प्रस्तुत के वर्णन में प्रस्तुतांकुर अलंकार मानते हुए कहा है कि 'अप्रस्तुत-प्रशंसा में अप्रस्तुत-द्वारा प्रस्तुत का वर्णन होता है और प्रस्तुतांकुर में प्रस्तुत-द्वारा अप्रस्तुत का। वास्तव में अप्रस्तुत-प्रशंसा और प्रस्तुतांकुर में बहुत अल्प ( सूक्ष्म ) भेद है, जो सहज नहीं जाना जा सकता, फिर भी अलकाराचार्यों का कहना है कि 'अप्रस्तुत-प्रशंसा में अप्रस्तुत का वर्णन और प्रस्तुत का ता.पर्य सम-बल से होता है तथा प्रस्तुतांकुर में प्रस्तुत के प्रति मुख्य भाव प्रकट होता है किंतु, प्रथम प्रस्तुत पर भी द्वितीय प्रस्तुत के समान घटना चाहिये। गूढोक्ति और प्रस्तुतांकुर में भी जरा-सा भेद है । गूढोक्ति में जहाँ दूसरा सुननेवाला अाग्रह-युक्त उस उक्ति से लाभ उठाता है, वहाँ प्रस्तुतांकुर में वह अाग्रह स्पष्ट नहीं होता। प्रस्तुतांकुर को कुछ प्राचार्यों ने (दासजी की भांति ) भिन्न अलंकार नहीं माना, इसे अन्योक्ति ही समझा है, पर अप्रस्तुत में कभी-कभी व्यंजना वा शब्द-शक्ति से प्रस्तुत के अंकुर दिखलायी पड़ ही जाते हैं, जिससे इस अलकार का भिन्न असतित्त्व मानना ही चाहिये..., फिर भी पंडितराज जगन्नाथ अपने रस-गंगाधर ( संस्कृत ) में इसकी पृथक् मान्यता के प्रति कहते हैं कि 'ध्वन्यालोक' ( संस्कृत ) में दिये गये उदाहरण विशेष में ध्वन्याकार अप्रस्तुत प्रशंसा-ही मानते हैं, प्रस्तुतांकुर नहीं। अन्य उदाहरणों ( सखि जनों द्वारा कही गयी उक्ति में कमलनी और हंस के ) में अप्रस्तुन के वृत्तांत-द्वारा अप्रस्तुत ( नायिका के रति-श्रादि ) वृतांत का ही कथन किया गया है, इस लिये यहाँ भी अप्रस्तुत प्रशंसा है, प्रस्तुतांकुर नहीं। अप्रस्तुत-प्रशंसा में मुख्यार्थ ( मुख्य-तात्पर्य) के अतरिक्त जो कुछ वर्णन होता है, वह सब अप्रस्तुत-शब्द के ही प्रयोग हैं, जो कहीं अति अप्राकरणिक हैं और कहीं प्राकरणिक, इसलिये प्रस्तुतांकुर-अलकार प्रथक् नहीं माना जा सकता, अपितु उस (प्रस्तुतांकुर ) का प्रस्तुत-प्रशंसा में ही गतार्थ हो पाता है, इत्यादि... ..
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