एक रदँन, द्वै मातु, त्रि चख, चौ बाहु पंच कर । षट पानँन बर बंधु-सेब्य, सप्तर्चि' भाल धर ॥ अष्ट सिद्धि, नव निद्धि-दाँनि,२ दस-दिसि जस बिस्तर । रुद्र इग्यारें सुखद, द्वादसादित्य भोजबर ।। जो त्रिदस-बूंद बंदित चरन, चौधे बिर्धन आदि गुरु । तिहि 'दास' पंचदस हूँ तिथिनि,धरिय षोडसौ ध्यान उर ॥
वि०-"इस छप्पय छंद-द्वारा दासजी ने तिथि रूप एक अंक से लेकर सोलह अंकों से षोडसोपचार रूप श्रीगणेशजी की वंदना की है। ये अंक कहीं संख्या-वाची और कहीं श्लेष से संयुक्त होकर दूसरे-दूसरे अर्थों की उत्पत्ति करते हैं, जैसे-"एक रदन एक दाँतवाले, द्वैमातु=दो माता श्री पार्वती और हथिनी, तीन नेत्र, चार बाहु, पाँच हाथ अर्थात् चार हाथ तो है ही पाँचवीं सूड भी हाथ का कार्य ही करती है। षट् आनन बर बंधु-षडानन-छह मुखवाले 'कार्तिकेय' के सुंदर बंधु (भाई ) हैं इत्यादि..."" अस्तु यह छंद जहाँ कवि की चतुराई के साथ-साथ उसको कल्पना-शक्ति और साहित्यिक ज्ञान का परिचय देता है वहाँ वंद्य-देव को शोडषकला-पूर्ण बतलाने के लिये साहित्य-शास्त्र के प्रमुख अंग रत्नावली अलंकार-द्वारा अलंकृत कवि-प्रतिमा
पा०-(१)-१.(प्र०) (३०) (सं० प्र०) (का० रा०)सप्ताचिं...। २. (सं० प्र०) मष्ट. सिदि-नवनिधि प्रदाँनि...। ३. (प्र०) (सं० प्र०) सुबट...। (स० स०-०) सुखद...। ४.(२० स०-म०) (सं० प्र०) (३०) षोडसी...!
- सू० स० भगवानदीन, पृ० १।