पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३३० काव्य-निर्णय पर नजर डालने से शात होता है कि काव्य-निर्णय के लेखक ( कापी-कर्ता) महोदयों ने विरुवालंकार के द्वितीय भेद "जाति से गुण का" विरोध-दर्शक- शीर्षक नहीं लिखा और "दरसाबत थिर दामिनि०..." जो उक्त भेद का उदा- हरण है, तृतीय “जाति से क्रिया' का भेद मान उसके नीचे वाला छंद घनाक्षरी "पंगुन को पग होत०..." मी तृतीय भेद का उदाहरण स्वीकार कर किया है । हमने यहां छंद तथा उनके शोर्षक समस्त पुस्तकों के आधार पर लिखे हैं, पर यह गलत है। अस्तु, तृतीय के स्थान पर चतुर्थ, चतुर्थ के स्थान पर पंचम... क्रमशः होने चहिये, जिससे उक्त अलंकार के दसों शीर्षकों व उदाहरणों का सामजस्य बैठ जाय...। एक बात और, वह यह कि इस अलंकार में “जाति, गुण क्रिया, और द्रव्य" पारमारिक शब्द आये हैं, अतएव-"जिन शब्दों से एक ही प्रकार के अनेक व्यक्तियों का बोध हो, उसे "जाति वाचक-शब्द" कहते हैं । देव, मनुष्य, पशु-पक्षी, पहाड़, नद-नदी और वृक्षादि जाति-वाचक शब्द है । गुण वा गुण- वाचक शब्द जो गुणों को प्रकट करे, जिनसे द्रव्यों का गुण सूचित हो और "क्रिया' वा क्रिया-वाचक शब्द वे कहलाते हैं जिनसे व्यापार का होना या करना पाया जाय । इसी प्रकार द्रव्य-"जिस शब्द से व्यक्ति-विशेष का बोध हो, उसे नाम और जिसका वह शब्द नाम हो उस व्यक्ति-विशेष को "द्रव्य" कहते हैं, जैसे-विष्णु शब्द, यह 'विष्णु' शब्द तो नाम है, किंतु जिस देवता का यह नाम है वह (देवता) 'द्रव्य है । अतः सूर्य, चंद्र, दिलीप कामधेनु, हिमालयादि सब द्रव्य है। भाषा अलंकार-मंथों में 'द्रव्य' शब्द से महर्षि कणाद'-कृत "वैशेषिक- दर्शन में कहे गये-पृथ्वी, बल, तेज, वायु, श्राकाश, काल, दिशा, मन और श्रात्मारूप नौ द्रव्यों को ग्रहण किया गया है, जो इनमें गृहोत नहीं हो सकते। यहाँ तो व्याकरणानुसार चोत्रिय अभीष्ट है, वही ग्रहण किया बाना उचित है। यही अर्थ भगवान् पतजलिकि महाभाष्य में भी माननीय हैं। महा कवि केशव ने अपनी प्रसिद्ध - "कवि-प्रिया" में "विरोध (विरुद्ध)" और "विरोधाभास" दो प्रयक्-प्रथक अलंकार माने हैं (द० प्रिया-प्रकाश-ला. भगवानदीन, पृ० १६०, ११४ प्रथम संस्करण) और दोनों के ही प्रथक्-प्रथक उदाहरण (विरोध-"सोमित सुबास हाम"... और "विरोधाभास-"परम पुरुष कुपुरुष-सँग सोभियतु."...) दिये है, तथा लक्षण इस प्रकार लिखे है। विरोधालंकार, यथा-