पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३६७

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३३२ काव्य-निर्णय दूसरे छंद-"बापु सितासित०..." के प्रति श्राप ( दीनजी ) का कहना है कि "इस छंद के प्रथम चरण में विषम और शेष चरणों में विभावना दिखलायी देती है, पर विचार करने से ये ठहरते नहीं, क्योंकि प्रथम चरण में "रंग-राते" शब्द से तात्पर्य प्रेम से हैं, किसी रंग विशेष से नहीं। शेष चरणों में कान, जीभ और चरण के संबंध में कहा गया है, वह भी अनिवार्य कारण कार्य के संबंध में नहीं ठहरता । यह आवश्यक नहीं है कि जिसके कान, जोभ, चरण हों वह सब कुछ सुने, बोले और चले भी। केशवदासजी का मत है कि विभावना में कारण-कार्य का संबंध अनिवार्य होता है, जो यहाँ नहीं है। फिर भी लाला जी का विचार है कि यह-'अापु सितासित०...” छंद, प्रथम "विभावना" का उदाहरण होना चाहिये, पुस्तक-लेखकों की असावधानी से उक्त (विरोध ) अलंकार के साथ यह छंद यहाँ लिखा गया है । श्लेपार्थ से विरोध नष्ट हो जाता है और उसका केवल अाभास-मात्र रह जाता है, इस आभास को-हो केशवदास- जी ने "विरोध" नामक अलंकार माना है, वाद के प्राचार्य ऐसा नहीं मानते । वे पूर्व लिखित विषय को हो विरुद्धालंकार का विषय मानते हैं .-अन नहीं।" विरोधाभास के उदाहरण ब्रजभाषा-साहित्य में बड़े सुंदर-सुदर हैं, जिन्हें ब्रजभाषा-मर्मज्ञ देख और सुन सकते हैं। यहाँ दो-एक उर्दू साहित्य के पद्य उद्धृत कहते हैं, जो निरोधाभास के उत्कृष्ट उदाहरण कहे जा सकते हैं । यथा- "रही यों सुलह पर भी जंग बाहम । तबीयत उनसे मिल-मिलकर लड़ा की ॥ करल दुश्मन का नहीं मुश्किल, बहुत आसान है। चाहिए इक दोस्त मुझ-सा, दिल बढ़ाने के लिए ॥" इससे तो और भाग वह बेदर्द हो गया। अब आह भातशी से भी दिल सदं हो गया ।" -इत्यावि... अथ बिभावना-अलंकार लच्छन जथा- बिन कै लघु कारनन ते, कारज परघट होइ। रोकत हूँ करि' कारने, बस्तुन ते विध सोइ॥ पा०-१. (सं० पु० प्र०) (का० ) कि प्रकारनी, या किम कारनी...1 (३०) (प्र०) रोकत-करि कारनी...।