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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३६८

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काव्य-निर्णय ३३३ बिभावना-भेद जथा- कारन ते कारज कळू, कारज-ही ते हेत। होत'छ-विध जु"बिभावना", उदाहरन कहि देत ।। वि०-"संस्कृत-अलंकाराचार्यों ने "विभावना" कारणांतर की कल्पना किये जाने पर मानी है। श्रीमम्मटाचार्य कहते हैं--"क्रिया ( हेतु-रूप ) के विना कहे- ही जहाँ फल का प्रकट होना कहा जाय", वहाँ अथवा जहां "हेतु-रूप क्रिया का बिना कथन किये-ही उसके फल का प्रकारा किया जाय वहाँ 'विभावना' समझनी चाहिये । साहित्य-दर्पण (संस्कृत) में-हेतु के बिना यदि कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाय तो विभावना और वह दो - "उक्तानुक्ता" (जिसमें निमित्त उक्त हो, और जिसमें निमित्त अनुक्त हो ) रूप की कही है । आपका मत है कि “जब बिना कारण के जो कार्य की उत्पत्ति कही जाय तो वहाँ कुछ न कुछ दूसरा कारण अवश्य रहता है और वह कारण कहीं उक्त होता है -- कहीं अनुक्त । दासजी का यह लक्षण चंद्रालोक के "बिना कारण हो जहाँ कार्य की उत्पत्ति दिखलाई जाय-(विभावना विनापिस्यात्कारण कार्य जन्म चेत् ) के अनुसार है। भाषा-भूपणकार श्री यशवंतसिंह विभावना को "कारन-बिन-ही काज" रूप में मानते हुए, “होति छै भाँति बिभावनों" कहा है। चिंतमणि ने - "कारज उतपति की जहाँ, कारन को प्रतिसेध", मतिराम ने --"बिना हेतु जहाँ बरनिएं प्रघट होत है काज", दूलह ने हेतु-बिन-कारज की उपज- "बिभावना है." और पद्माकर ने-"सो बिभावना जॉन, कारज-बिन कारज जहाँ"- कहते हुए उसके छह प्रकार का उल्लेख किया है। विभावना का शब्दार्थ है-"कारण का अभाव", अथवा जैसा पूर्व में कहा है-"कारणांतर की कल्पना, अर्थात् जो मूल कारण है, उसकी अनुपस्थिति का कथन करना।" अतएव विभावना के सभी भेदों में मूल कारण का अभाव होता. है । यह अभाव कहों स्व से और कहीं अर्थ के द्वारा प्रकट होता है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता, पर कवि अपने कौशल से बिना कारण अपूर्ण कारण के होते, प्रतिबंधक के होते, अकारण-द्वारा होते विरोधी कारण-द्वारा कार्य और कार्य से कारण होने का वर्णन कर अपने काध्य में कुछ एसे चमत्कार पैदा कर देता है कि जो विभावना का विषय बन हृदय हारी हो जाता है। और उसका यह अल करण-ही विभावना को छह रूपों में विभक्त कर देता है। अतएव "प्रसिद कारण के अभाव में भी कार्य के उत्पन्न होने पर "प्रथम- पा०-१.(वे.) होती छ विष बिभावना...।