पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४०

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काव्य-निर्णय

यहाँ 'प्रिय-तन की विशाल प्रभा (शोभा ) का प्रकर्ष बतलाने के लिये चामीकर और चपला के बाद मसाल और मनि-माला का कहना उक्त दोष के अन्तर्गत आ जाता है क्योंकि स्वर्ण और विद्यु ज्ज्योति के आगे मणियों के समूह तथा मसाल की कोई विशात नहीं। दासजी ने पतत्त्रकर्ष दोष वहाँ बतलाया है" जहाँ अपनायी हुई रोति का निर्वाह न हो, यथा-

"सो है 'पततप्रकर्ष' जहँ, लई रीति निवाँ न ।"

और उदाहरण-

"कान्ह, कृस्न, केसव, कृपा, सागर राजिय नेन ॥"

अर्थात् ककारादि चार शब्दों को कहकर आगे उस ( ककरादि ) का 'निर्वाह नहीं किया गया है । अतएव हमारो तुच्छ बुद्धि में यहां उक्त दोष नहीं आता, भूल-चूक लेनी-देनी... ।

शुभाशीषरूप-'दोहा
प्रथ काव्य-निरन-हिं जो सममि करेंगे कंठ।
सदाँ बसैगी भारती, तिन्ह' रसनाँ उपकंठ ॥
काव्य-प्रयोजन-'सवैया' जथा-

एक लहैं तप-पुंजन को फल,ज्यों 'तुलसी' अरु 'सूर' गुसाँई। एक लहैं बहु संपत, केसब,-भून ज्यों बर बीर बडाँई ।। एकन कों जस हो सों प्रयोजन, है' 'रसखाँन'-रहीम की नाँई । "दास' कवितन की चरचा, बुधिवतन को सुख देति सदाँई ।।*

कविता-भेद 'सोरठा' जथा-
प्रभु ज्यों सिखवें वेद, मित्र' कहें ज्यों सत-कथा।
काम्य-रसन को भेद, सुख-सिख दॉनि तियाँनि ज्यों।

पा०-१. (प्र०) ता . । २. (सं० प्र०) सुभकठ ।-(ल.) अतिकंठ । ३. (भा० जी०)एकै...। ४. (प्र०) को ५. (ल.) त्यों...। ६. (का० प्र०) रचनां...। ७. (सं० प्र०) मित्र-मित्र ज्यों...। . (प्र०) तियासु...

  • कान्य-प्रभाकर-भानु कवि, पृ०६३ ।