पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३९

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काव्य-निर्णय

रसलीनजी का पूरानाम “सैयद गुलामनवी ( उपनाम-रसलीन ) बिलग्राम,जिला हरदोई के रहनेवाले थे। आपने मुसलमान होकर भी ब्रजभाषा को सुंदर और प्रौढ़ रचना की है। इन जैसी सुदर, सरस रचना को देखकर ही यह निम्नलिखित उक्ति बरबस याद आ जाती है कि “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटॅन हिंदू बारिऐ।"

रसलीनजी के दो "अंगदर्पण" (नखसिख, र० का० १७६४ ) और "रसप्रशोध" ( नायिका भेद, र० का १७६६) ग्रंथ मिलते हैं। ये दोनों प्रय काशी के भारतजीवन प्रेस से सन् १८६६ और सन् १८८५ में क्रमशः काशित हो चुके हैं। कहते हैं आप सं० १८०३ वि० में विद्यमान थे।

वासुदेव या वासुदेवलाल कायस्थ भी दासजी के समय अच्छे कवि कहे जाते हैं। इनकी रचना का अभी पता नहीं लगपाया है, पर दासजी ने जिस प्रकार से आपका नामोल्लेख किया है उससे जाना जाता है कि आप भी तत्समय ब्रजभाषा के उत्कृष्ट कवि ही नहीं उसके अति मर्मज्ञ थे, इत्यादि... ।

एक बात और, वह यह कि "तोष, रसराज और रसलीन शब्दों के दूसरे अर्थ भी हो मकते हैं, जैसे-तोष-सतोष, रसराज-शृंगाररस और रसलीन अर्थात् रस में लीन इत्यादि। इन द्वितीय शब्दार्थों से कवि-इच्छित अर्थ की संगति नहीं बिगड़ती, अपितु कुछ अधिक चमत्कार ही बढ़ जाता है। फिर भी हमें-"महाजनोयेनगतः सपंथा." के अनुसार यहाँ कविनामों पर ही सन्तोष करना पड़ा है-उन्हें ही मानना पड़ा है।"

दासजी के इस भाव को आपके परवर्ती कवि महाराज मानसिंह "द्विजदेव"(सं० १८७७) ने भी अपनाया है, यथा-

"रसिक रीमि हैं जाँनि, तौ हहै कविता सुफल।

साँचा:Rhन तरु सदा सुख-दौनि, श्रीराधा-हरि को सुजस॥"

पं. महावीर प्रसाद मालवीय "बीर" ने अपने स्वसंपादित काव्य-निर्णय के इस कवित्त में "पततप्रकर्ष-दोष" बतलाते हुए लिखा है कि "अभी काव्य- निर्णय बना नहीं और ( उक्त ) प्रवीण कवियों ने उसकी तारीफ कर दी! संभव है ग्रंथ-निर्माण के अनन्तर यह कवित्त पीछे लिखकर संमिलित किया गया हो..." कविता पारखियों ने पतत्प्रकर्ष दोष-"जहाँ प्रस्तुत विषय के क्रमागत प्रकर्ष को कोई हेय-उक्ति कहकर विनष्ट कर दिया जाय, वहाँ कहा है। उदाहरण जैसे-

"रंध्र-जाल है देखियतु, प्रियतन-प्रभा बिसाल।
चामीकर चपला लख्यो, के मसाल, मनिमाल॥"