पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४०७

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३७२ काव्य-निर्णय अथ "स्वगुन" उदाहरन जथा- भौवतौ भावतौ जॉन नबेली, चमेली के कुज जो पेंठत' जाइके। 'दास' प्रसनॅन 'सोनजुही' करै, कंचन-सी तँन' जोति-मिलाइ कें॥ चौंकि मॅनोरथ-हू हँसि लेन, चलै पग लाल-प्रभा मग छाइ के। बीर, करै करबीर-मरै, निखले हरखै छबि मापनी पाइ कें॥ वि०-"दासजी ने यह छंद "स्वगुण" अलंकार के शीर्षक से सुशोभित कर अपने 'काव्य-निर्णय' में दिया है । स्वगुण का अर्थ है-अपना गुण, किंतु आपने इसका कोई लक्षण नहीं दिया है कि स्वगुण क्या है। यही नहीं, अापने इस छंद को अपने 'शृगार निर्णय' ग्रंथ में 'परकीया वासकसज्जा' के उदाहरण में भी दिया है।" अथ अतदन अलंकार लच्छन जथा- वहै। 'अतदगँन' जो नहीं, संगत को गुन लेत । पूर्वरूप गुन नहिं मिटै, भऐं मिटॅन के हेत। वि०-"जहां संगत-पास का गुण-ग्रहण न किया जाय, मिटने (नाश) का कारण होते हुए भी अपना गुण न त्यागा जाय, तब वहाँ "श्रतद्गुण" अलं- कार कहा जायगा । अथवा-समीपवर्ती वस्तु के गुण का रूप-रस गंधादि का ग्रहण किया जाना संभव होते हुए भी ग्रहण न किये जाने को 'अतद्गुण' कहते हैं । अतद्गुण, तद्गुण-अलंकार का विरोधी है-उससे विपरीत है। वहाँ (तद्गुण में) समीप वस्तु का गुण ग्रहण किया जाता है, यहाँ (अतद्गुण में) नहीं । किसी-किसी संस्कृत-अलंकार-मंथों में इस (अतद्गुण ) के दो रूप (भेद) भी मिलते हैं । जैसे-"जब अवर्ण्य-वस्तु न्यून गुण वाली होकर भी समीपस्थ उत्कृष्ट गुण वाली वय-वस्तु के गुण का ग्रहण न करे, तथा जब वर्ण्य वस्तु पास में श्रये वस्तु के रहते उसका गुण-ग्रहण न करे' इत्यादि... और इन दोनों के उदाहरण संस्कृतानुसार ब्रज-भाषा में इस प्रकार बनते हैं, प्रथम-उदाहरण यथा- "पिय अनुरागी ना भयौ, बसि रागी मैंन-माँहि ।” -भा०-भू. पा०-१. (का०)(१० नि०) (सं० पु० प्र०) बैठती...। (प्र०) बैठत... (रा०प्र० का०) पैठती...| २. (२) तम। ४. (सं० पु० प्र०) (का०) (०) (प्र०) (०नि०) महि...। ४.(०नि०) भौने बलै हरखै छबि...1 ५. (सं० पु० प्र०) आपनों.... ६. (का०) (वे०) सु अतद्गुन के हूँ नहीं, (प्र०) सोई अतदगुन.है नहीं.... (सं० पु० प्र०) मुही.....

  • नि० (भि० दा०) ५० ५४, १६१ ।