पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४१८

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काव्य-निर्णय ३८३ ३८३ बिहारीलाल कहते हैं- "जुबति जोन्ह में मिलि गई, नेकु न परति बखाइ सोंधे के डोरें-जगी, भली चली सँग जाइ ॥" मतिराम कहते हैं- "सरद-चाँदनी में प्रघट, होत न तिय के भंग । सुनत मँजु मजीरि-धुनि, सखी न छोदति सँग ॥" पुनः उँ नमीलित-उदारन जथा- जमुना जल में मिलि चली, उँन असुवन की धार । नीर दूरि ते ल्याइयतु, जहाँ' न पैयत खार ।। अथ बिसेसक उदाहरन जथा- मँन-मोहन मॅन-मर्थन कों', कै कहितो को जाँन । जो इन-हूँ कर कुसुम के', होते बाँन-कमॉन ।। पुनः उदाहरन जथा--- भई प्रफुल्लित कॅमल में , मुखछबि मिलत बनाइ । कमलाकर में कॉमिनी, बिहरति होति लखाइ । वि०-"विशेषक का उदाहरण 'रघुनाथ' कवि का भी सुंदर है, श्राप कहते हैं-- "खेलत खेल मिहींचिनी कौ, चितसारी में जा छिपी छवि छाई। चित्र-लिखी पुतरीन सों न्यारी के, हे 'रघुनाथ' गई न बताई ॥ हरेत-हारो सखी सिगरी, अपनी-अपनी फरि चतुराई। चौस में भाई न हाथ कहा कहों, राति भई तब राधिका पाई॥" ध्यान रहे, उन्मीलित और विशेषक में अधिक भेद नहीं, बहुत-ही सूक्ष्म भेद है । उन्मीलित में हेतु की और विशेषक में समय की अपेक्षा है, जो इनकी पृथकता का हेतु है।" श्रो मतिराम का भी विशेष रूप सुंदर उदाहरण है, यथा- "माई फूलन-लेन कों, चलौ बाग में लाल । मृदु-बोलॅन सों जानिऐं,मृदु-बेलिन में बाल ॥ एक बात और, वह यह कि श्री दासजी ने जैसा पूर्व में कह पाये है- 'इस उल्लास में रीति-काल (संस्कृत-ब्रजभाषा) के पूर्वापर प्राचार्यों से विप. रीत 'उल्लासादि' अलंकारों का निरूपण किया है-उनके तद्तद् लक्षणों को पा०-१. (का०)(२०) (Ho) जहँ न पाइयत...। २. (का०) (३०) की...। ३. (का०) (३०) (प्र०) को, हो तो बान...। ४. (का०) मों....