अथ पंद्रहकाँ उल्लास: अथ सँमादि अलंकार बरनन जथा- उचित-अनुचिती' बात में, चमतकार लखि 'दास'। औ कछु' मुक्तक-रीति-लखि, कहत यहै उल्लास ॥ 'सँम', 'समाधि'. परिवृत्त' गॅनि, 'भाविक', 'हरख', 'विषाद'। 'असंभवौ 'सभाबना, 'समुच्चयो' अबिबाद'। 'भन्योअन्य', 'विकल्प' मुनि, 'सह', 'बिनोक्ति', 'प्रतिसेध'। 'विधि', 'काब्यार्थापत्ति' - जुत, सोरह कहत सुमेध ॥ वि०-"दासजी ने इस (पंद्रहवें ) उल्लास में-“सम, समाधि, परिवृत्ति, भाविक, हर्ष (प्रहर्षण), विपाद, असंभव, संभावना, समुच्चय, अन्योन्य, विकल्प, सहोक्ति, विनोक्ति, प्रतिषेध, विधि" और "काव्यार्थापत्ति" नामक सोलह (१६) अलंकारों का वर्णन उनके भेद-सहित किया है। साथ ही उक्त उल्लास-रूप में इनका वर्गीकरण करते हुए कहा है-इन अलंकारों की उचितानुचित बातों-कहन- गति का ध्यान रखते हुए मुक्तक-रीति के अनुसार इन्हें यहाँ अलंकृत किया है। _____ संस्कृत में इन अलंकारों को-भेद-प्रधान' (सहोक्ति-विनोक्ति), 'विरोध- मूलक'(अन्योन्य, असंभव, सम ), 'वाक्य-न्याय-मूलक' (परिवृत्ति, काव्यापत्ति, विकल्प, समाधि, समुच्चय), 'वर्ण-वैचित्र्य-प्रधान' (प्रहर्षण, भाविक, विषादन) वर्गों में विभक्त किया है । विधि-प्रतिषेध को कोई 'गूढार्थ-प्रतीति' वर्ग के अंतर्गत मानता है, कोई नहीं। संभावना का किसी ने वर्गोकरण नहीं किया है । इन सबों के प्रति अन्य वर्गीकरण भी मिलते हैं, जैसे-'सादृश्य-गम्पमान्' (सहोक्ति- विनोक्ति), विरोधमूल' (असंभव), 'न्यायमूल' (काव्यार्थापत्ति, परिवृत्ति, विकल्प, समाधि, समुच्चय), 'गूढार्थ-प्रतीति मूल' (प्रतिषेध, विधि) और 'प्रकीर्षक' (अन्योन्य, प्रहर्षण, भाविक, विषादन, सम)। संभावना अलंकार की इस वर्गी- करण में भी गति नहीं, वह यहां भी बाति-वहिष्कृत है। )(प्र.) पा०-१. (प्र.) अनुचितो...। २. (का० ) इक...। ३. (का० )( एक...।४.(३०) असंभवी...। ५. (प्र.) भन्योन्यरु...। २५
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