पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४३१

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३६६ काव्य-निर्णय श्रतएव दासजी और पूर्व रचनाकार श्री जसवंत सिंह जी कथित 'भाविक-अलंकार' वहाँ होता है, जहाँ भूत-भविष्य (बीती हुई और आने वाली) की बातों - घट- नात्रों का वर्तमानवत् अथवा प्रत्यक्ष जैसा वर्णन किया जाय, क्योंकि भाविक का अर्थ है-"भाव की रक्षा।" भाविक अलंकार को पूर्व-अलंकाराचार्यों-भट्टि, भामह, दंडी और उदभट आदि ने तो माना है, काव्यालंकार-सूत्र के कर्ता वामन ने नहीं । भोज, मम्मट और रुय्यक ने भी इसे अपनाया है तथा पियूषवर्षी जयदेव और विश्वनाथ चक्रवर्ती ने भी। लक्षण प्रायः समान हैं, जैसे-प्रत्यक्षा इव पद्भावाः क्रियते- भूतभाविनः" (जहां भूत-भविश्य-काल के पदार्थ भी वर्तमान काल के प्रत्यक्ष पदार्थ के समान प्रकट किये जाय-काव्य प्रकाश मम्मट-पं० हरिमंगलमिश्र-द्वारा अनुवा- दित) यहाँ 'भूतभाविनः' शब्द द्वद-समास के द्वारा बनने के कारण अर्थ में -"जो पूर्व में हो चुका है और जो भविष्य में होने वाला है" होता है । इसी प्रकार भाव भी-"भावः कवरेभिप्रायोऽत्रास्तीति भाविकम्" (भाव, अर्थात् कवि का अभिप्राय जिसमें रहता है वह भाविक) कहा गया है। साहित्य-दर्पण में इससे कुछ विशद लक्षण कहा गया है, जैसे- "अद्भुतस्य पदार्थस्य भूतस्याथ भविष्यतः । यत्प्रत्यक्षायमाणस्वं तद्भाविकमुदाहृतम् ॥" अर्थात् भूत या भविष्यत् (के) किसी अद्भुत पदार्थ को प्रत्यक्षवत् अनुभव करने पर “भाविक" अलंकार होता है। साथही यहाँ “न चापं प्रासादाख्यो- गुणः"-इत्यादि कहते हुए-"इसे प्रसाद गुण के अंतर्गत नहीं कह सकते, क्योंकि भूत और भविष्यत् के प्रत्यक्षवत् भासित होने में प्रसाद गुण हेतु नहीं है। यह अद्भुत-रस भी नहीं है, क्योंकि यह (भाविक) विस्मय का हेतु है, विस्मय- स्वरूप नहीं। अतिशयोक्ति भी यह नहीं, क्योंकि यहाँ अध्यवसाय नहीं है । भूत-भविष्यत् वस्तुत्रों को ठीक उसी प्रकार वास्तविक रूप में प्रकाशित होने के कारण 'भ्रांति' अलंकार भी नहीं है । स्वभावोक्ति में वस्तु का सूक्ष्म स्वरूप वर्णित रहता है, वही उस अलंकार का स्वरूप है, पर यहाँ वस्तु को 'प्रत्यक्षायमायता' विशेष है । और यदि कहीं स्वभावोक्ति में भी यह चमत्कार दीखे तो इन दोनों का-भाविक और स्वभावोक्ति का संकर जानना चाहिये इत्यादि" (साहित्य-दर्पण- शालिग्राम शास्त्री का हिंदी-अनुवाद)। उपरोक्त लक्षणों के विपरीत चंद्रालोक में माविक को 'भाविकच्छवि' नाम देते हुए लक्षण-रूप में-'देशात्मविप्रकृष्टस्य- दर्शन भाविकच्छविः ( वहाँ देश वा प्रात्मा-संबंधी बात घुमाकर कही बाय, वहीं भाविकच्छविः) कहा है।