४०० काव्य-निर्णय तीसरे प्रहर्षण का लक्षण इस प्रकार भी कहा जा सकता है-"वहां वांछितार्थ की प्राप्ति के साधन का उपाय करते-करते साक्षात् फल प्राप्त हो जाय...। प्रहर्षण अलंकार, सर्व प्रथम पीयूषवर्षी जयदेव ने अपने चंद्रालोक में माना है। वहां ऊपर लिखे तीनों भेद नहीं मिलते, यथा-"वांछितादधिकातिर- यत्नेन प्रहर्षणं" (जहाँ वांछित फल बिना यन के अधिक मिल जाय ) | काव्य- प्रकाश (मम्मट) की “उद्योत" नामक व्याख्या में -“कारणांतर के सुयोग-द्वारा कार्य की सिद्धि होने के कारण" रूप प्रहर्षण को 'समाधि' अलंकार के अंतगत मानकर उल्लेख किया है । पंडितराज जगन्नाथजी और अप्पय दीक्षित ने चंद्रा- लोक की भाँति इसे स्वतंत्र अलंकार रूप में मान दिया है। सबसे प्रथम अलंकारों के मूलतत्त्वों पर विचार कर उसका वर्गीकरण करने वाले श्राचार्य उद्भट ने अपने चार . "वास्तव, श्रौपम्य, अतिशय और श्लेश (अर्थ- श्लेश) वर्गों में कहीं भी इस अलंकार का स्मरण नहीं किया है। प्राचार्य उद्भट का समय ईसा की अष्टमशताब्दी के लगभग माना जाता है। वामन श्राचार्य उद्भट के समकालीन थे । रुद्रट का समय ईसा की नवमशताब्दी, भोज. राज की ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी, मम्मट्ट की भी उक्त ग्यारहवीं शताब्दी, रुय्यक, वाग्भट और हेमचंद्राचार्य की बारहवीं शताब्दी और पीयूषवर्ष जयदेव की ईशा की बारहवीं-तेरहवीं (का मध्य) मानी जाती है । इससे ज्ञात होता है उद्भट का वर्गीकरण जयदेव से प्रथम होने के कारण वहाँ 'प्रहर्षण' का उल्लेख नहीं है। रुय्यक के सात अलंकार-वर्ग में भी इसका उल्लेख नहीं है, कारण पूर्व लिखित है। फिर भी प्रहर्पण की-“वर्णन वैचित्र्य-प्रधान श्रेणी" तथा "प्रकोणक"श्रलं- कारों में गणना की जाती है।" अथ प्रथम प्रहरन को उदाहरन जथा- ज्वाल के जाल उसासँन ते बढ़े, देखी न ऐसी बिहाल-बिथा ती। सीर - समीर, उसीर - गुलाब के, नीर - पटीर-हू ते सरसाती॥ श्री ब्रजनाथ सँनाथ करो,' मोहि ज्याइ लई लपटाइ के छाती । भाज-हूँ या के तँनें-पतने जतनं सब मेरी धरी रहि जाती। वि०-"दासजी कृत यह उदाहरण प्रथम-प्रहर्षण के लक्षणानुसार "जतन- घने करि थाकिए, अरु बाँछित फल यों ही" का है, जो-"ज्याइ लई लपटाइ के पा०-१.(३०) देखो ... (सं० पु० प्र०) देख्यो न...। २. (का.) (३०) (प्र.) कियो मोहि ज्याइ लियो...। ३. ( का०) (३०) हि लाइकें बाती । (प्र.) गहि लाइके....
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